Blogvani.com

Friday, April 30, 2010

काश माधुरी ने मोहनलाल की जीवनी को पढ़ लिया होता !


यदि भारतीय राजनयिक माधुरी गुप्ता ने मोहनलाल भास्कर की जीवनी पढ़ ली होती तो आज वह सीखचों के पीछे न बंद होती। मोहनलाल 1965 के भारत-पाक युध्द में पाकिस्तान के आणविक केन्द्रों की जानकारी एकत्रित करने के लिये गुप्त रूप से पाकिस्तान गये थे। ये वे दिन थे जब जुल्फिाकर अली भुट्टो ने यू एन ओ में यह वक्तव्य देकर पाकिस्तानियों के मन में भारतीयों के विरुध्द गहरा विष भर दिया था कि वे दस हजार साल तक भारत से लड़ेंगे। मोहनलाल पाकिस्तान में इस कार्य के लिये जाने वाले अकेले न थे, उनका पूरा नेटवर्क था। दुर्भाग्य से उनके ही एक साथी ने रुपयों के लालच में पाकिस्तानी अधिकारियों के समक्ष मोहनलाल का भेद खोल दिया और वे पकड़ लिये गये।


मोहनलाल पूरे नौ साल तक लाहौर, कोटलखपत, मियांवाली और मुलतान की जेलों में नर्क भोगते रहे। पाकिस्तान के अधिकारी चाहते थे कि मोहनलाल पाकिस्तानी अधिकारियों को उन लोगों के नाम-पते बता दें जो भारत की तरफ से पाकिस्तान में रहकर कार्य कर रहे हैं। पाकिस्तानी अधिकारियों के लाख अत्याचारों के उपरांत भी मोहनलाल ने उन्हें कोई जानकारी नहीं दी। पाकिस्तान की जेलों में मोहनलाल को डण्डों, बेंतों और कोड़ों से पीटा जाता था। उन्हें नंगा करके उन पर जेल के सफाई कर्मचारी छोड़ दिये जाते थे जो उन पर अप्राकृतिक बलात्कार करते थे। एक सफाई कर्मचारी उन पर से उतर जाता तो दूसरा चढ़ जाता था। छ:-छ: फौजी इकट्ठे होकर उन्हें जूतों, बैल्टों और रस्सियों से पीटते थे। इस मार से मोहनलाल बेहोश हो जाते थे फिर भी मुंह नहीं खोलते थे।


मोहनलाल को निर्वस्त्र करके उल्टा लटकाया जाता और उनके मलद्वार में मिर्चें ठूंसी जातीं। उन्हें पानी के स्थान पर जेल के सफाई कर्मचारियों और कैदियों का पेशाब पिलाया जाता। जेल के धोबियों से उनके कूल्हों, तलवों और पिण्डलियों पर कपड़े धोने की थापियां बरसवाई जातीं। इतने सारे अत्याचारों के उपरांत भी मोहनलाल मुंह नहीं खोलते थे और यदि कभी खोलते भी थे तो केवल पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों के मुंह पर थूकने के लिये। इस अपराध के बाद तो मोहनलाल की शामत ही आ जाती। उन्हें पीट-पीटकर बेहोश कर दिया जाता और होश में लाकर फिर से पीटा जाता। उनकी चमड़ी उधड़ जाती जिससे रक्त रिसने लगता। उनके घावों पर नमक-मिर्च रगड़े जाते और कई दिन तक भूखा रखा जाता। फिर भी मोहनलाल का यह नियम था कि जब भी पाकिस्तान का कोई बड़ा सैनिक अधिकारी उनके निकट आता, वे उसके मुँह पर थूके बिना नहीं मानते थे।


पैंसठ का युध्द समाप्त हो गया। उसके बाद इकहत्तार का युध्द आरंभ हुआ। वह भी समाप्त हो गया किंतु मोहनलाल की रिहाई नहीं हुई। जब हरिवंशराय बच्चन को मोहनलाल के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने भारत सरकार से सम्पर्क करके उनकी रिहाई करवाई। उसके बाद ही भारत के लोगों को मोहनलाल भास्कर की अद्भुत कथा के बारे में ज्ञात हुआ। काश! माधुरी ने भी मोहनलाल भास्कर की जीवनी पढ़ी होती तो उसे भी अवश्य प्रेरणा मिली होती कि भारतीय लोग अपने देश से अगाध प्रेम करते हैं और किसी भी स्थिति में देश तथा देशवासियों से विश्वासघात नहीं करते।

भारतीय स्त्रियों की परम्परा तो कुछ और ही है !


उसे अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बदला लेना था! उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन चाहिये था! वह किसी पाकिस्तानी गुप्तचर से प्रेम करती थी! ये वे तीन कारण हैं जो इस्लामाबाद स्थित भारतीय दूतावास में नियुक्त भारतीय महिला राजनयिक ने एक–एक करके बताये हैं जिनके लिये उसने अपने देश की गुप्त सूचनायें शत्रुओं के हाथ में बेच दीं! ये सारे उत्तर एक ही ओर संकेत करते हैं कि यह महिला राजनयिक अत्यंत महत्वाकांक्षी है और दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्व प्राप्त करने के लिये उसने भारत की सूचनायें शत्रुओं को दी हैं।

प्रेम! राष्ट्रभक्ति! और बदला! भावनाओं के इस त्रिकोण में भारतीय स्त्रियों की परम्परा अलग रही है। राजस्थान के इतिहास की तीन घटनायें इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। पहली घटना 1314 ईस्वी की है जब जालोर के चौहान शासक कान्हड़देव के मंत्री वीका ने राजा कान्हड़देव से अपने अपमान का बदला लेने के लिये अल्लाउद्दीन खिलजी को दुर्ग के गुप्त मार्ग का पता दे दिया। जब मंत्री वीका की पत्नी हीरादेवी को यह ज्ञात हुआ तो उसने उसी क्षण अपने पति की हत्या कर दी और राजा को अपने पति की गद्दारी के बारे में सूचित किया। हीरादेवी ने अपना देश बचाने के लिये अपना पति बलिदान कर दिया।

दूसरी घटना 1536 ईस्वी की है। दासी पुत्र वणवीर 19 वर्षीय महाराणा विक्रमादित्य की हत्या करके स्वयं मेवाड़ की गद्दी पर बैठ गया। उस समय विक्रमादित्य का छोटा भाई उदयसिंह 15 साल का था। जब वणवीर राजकुमार उदयसिंह को मारने के लिये उसके महल में गया तो उदयसिंह की धाय पन्ना ने अपने पुत्र चंदन को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। वणवीर ने पन्ना के बेटे को उदयसिंह जानकर उसकी हत्या कर दी। पन्ना उदयसिंह को महलों से लेकर भाग गयी। पन्ना ने मातृभूमि के भविष्य को बचाने के लिये अपने पुत्र का बलिदान कर दिया।
तीसरी घटना 1658 ईस्वी की है। औरंगजेब ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती से बलपूर्वक विवाह करने का प्रयास किया। इस पर चारूमती ने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह को लिखा कि या तो आप आकर मुझसे विवाह कर लें या फिर मैं अपने प्र्राण त्याग दूंगी। इस पर महाराणा ने अपने सरदारों को सेना सहित किशनगढ़ कूच करने का आदेश भिजवाया। जिस दिन सलूम्बर के ठाकुर के पास यह संदेश पहुँचा, उस दिन ठाकुर अपना विवाह करके आया था और उस दिन उसकी सुहागरात थी किंतु ठाकुर ने उसी समय युद्ध के लिये कूच कर दिया और अपनी सोलह वर्षीय हाड़ी रानी से स्मृति चिह्न मांगा। रानी ने अपना सिर काटकर ठाकुर को भेजा और कहलवाया कि इस भेंट को पाने के बाद युद्धक्षेत्र में आपका ध्यान देश की आन, बान और शान बचाने में लगेगा न कि अपनी षोडषी रानी के रूप लावण्य में। हाड़ी रानी ने अपने देश की आन, बान और शान के लिये अपना जीवन बलिदान कर दिया।

ये तीनों घटनायें बताती हैं कि राष्ट्र रूपी देवता की आराधना के समक्ष निजी हित–अनहित और महत्वाकांक्षायें कुछ भी नहीं। महत्व तो इतिहास की उन स्त्रियों को मिला जिन्होंने राष्ट्र रूपी देवता के पूजन के लिये पति, पुत्र और स्वयं के बलिदान दिये। उनके नाम आज सैंकड़ों साल बाद भी इतिहास के पन्नों में अमर हैं। भारतीय राजनयिक ने शत्रु के हाथों गुप्त सूचनायें भेजकर राष्ट्र रूपी देवता को कुपित किया है। भारतीय स्त्रियों की यह परम्परा नहीं है।

Thursday, April 29, 2010

उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता !

पाकिस्तानी दूतावास में द्वितीय सचिव स्तर की महिला राजनयिक को गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान के हाथों बेचने के आरोप में पकड़ा गया। भारतीय एजेंसियों के अनुसार यह तिरेपन वर्षीय महिला राजनयिक, भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ के इस्लामाबाद प्रमुख से महत्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त करती थी तथा उन्हें पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आई एस आई को बेचती थी। कुछ और अधिकारी भी इस काण्ड में संदेह के घेरे में हैं! इस समाचार को पढ़कर विश्वास नहीं होता! सारे जहां से अच्छा! मेरा भारत महान! इण्डिया शाइनिंग! हम होंगे कामयाब! माँ तुझे सलाम! इट हैपन्स ओन्ली इन इण्डिया! जैसे गीतों और नारों को गाते हुए कभी न थकने वाले भारतीय लोग, क्रिकेट के मैदानों में मुंह पर तिरंगा पोत कर बैठने वाले भारतीय लोग और सानिया मिर्जा को कंधों पर बैठा कर चक दे इण्डिया गाने वाले भारतीय लोग क्या अपने देश को इस तरह शत्रुओं के हाथों बेचेंगे! संभवत: ये गीत और नारे अपने आप को धोखा देने के लिये गाये और बोले जाते हैं!

आखिर इंसान के नीचे गिरने की कोई तो सीमा होती होगी! पाकिस्तान के लिये गुप्त सूचनायें बेचने और शत्रु के लिये गुप्तचरी करने वाले इन भारतीयों के मन में क्या एक बार भी यह विचार नहीं आया कि जब उनकी सूचनाओं के सहारे पाकिस्तान के आतंकवादी या सैनिक भारत की सीमाओं पर अथवा भारत के भीतर घुसकर हिंसा का ताण्डव करेंगे तब उनके अपने सगे सहोदरे भी मौत के मुख में जा पड़ेंगे! रक्त के सम्बन्धों से बंधे वे माता–पिता, भाई–बहिन, बेटे–बेटी और पोते–पोती भी उन रेलगाडि़यों में यात्रा करते समय या बाजार में सामान खरीदते समय या स्कूलों में पढ़ते समय अचानक ही मांस के लोथड़ों में बदल जायेंगे, जिनके लिये ये भारतीय राजनयिक और गुप्तचर अधिकारी पैसे लेकर सूचनायें बेच रहे थे!

कौन नहीं जानता कि हमारी सीमाओं पर सबकुछ ठीक–ठाक नहीं चल रहा! पाकिस्तान की सेना और गुप्तचर एजेंसियों ने सीमा पर लगी तारबंदी को एक तरह से निष्फल कर दिया है। तभी तो सितम्बर 2009 में पाकिस्तान की ओर से राजस्थान की सीमा में भेजी गई बारूद और हथियारों की दो बड़ी खेप पकड़ी जा चुकी हैं जिनमें 15 किलो आर डी एक्स, 4 टाइमर डिवाइस, 8 डिटोनेटर, 12 विदेशी पिस्तौलें तथा 1044 कारतूस बरामद किये गये। इस अवधि में जैसलमेर और बाड़मेर से कम से कम एक क्विंटल हेरोइन बरामद की गई है।

अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पार से लाये जा रहे हथियार और गोला बारूद का बहुत बड़ा हिस्सा देश के विभिन्न भागों में पहुंचता है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली, बंगलौर, पूना, जयपुर और बम्बई सहित कई नगर इस गोला बारूद के दंश झेल चुके हैं। हाल ही में बंगलौर में क्रिकेट के मैदान में आरडीएक्स की भारी मात्रा पहुंच गई और वहां दो बम विस्फोट भी हुए। क्यों भारतीय सपूत अपने देश की सरहदों की निगहबानी नहीं कर पा रहे हैं ? जिस समय मुम्बई में कसाब अपने आतंकवादी साथियों के साथ भारत की सीमा में घुसा और ताज होटल में घुसकर पाकिस्तानी आतंकियों ने जो भीषण रक्तपात किया उस समय भी हमारे देश की सीमाओं पर देश के नौजवान सिपाही तैनात थे फिर भी कसाब और उसके साथी अपने गंदे निश्चयों को कार्य रूप देने में सफल रहे!

सीमा की चौकसी की असफलता हमारे बहादुर सिपाहियों की मौत के रूप में हमारे सामने आती है। अभी कुछ दिनों पहले एक आंकड़ा समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था जिसमें कहा गया था कि राजस्थान ने कारगिल के युद्ध में 67 जवान खोये किंतु कारगिल का युद्ध समाप्त होने के बाद राजस्थान के 410 सपूतों ने भारत की सीमाओं पर प्राण गंवाये। इन आंकड़ों को देखकर मस्तिष्क में बार–बार उठते हैं– कहाँ गये वो लोग जिनकी आँखें इस मुल्क की सरहद की निगहबान हुआ करती थीं! कहाँ गये वे लोग जिन्होंने ये गीत लिखा था– उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता, जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें!

Sunday, April 25, 2010

मेरी भैंस ने आई पी एल कर दिया रे!

आजकल ब्लॉग लेखन का भी एक अच्छा खासा धंधा चल पड़ा है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी भाषा में भी कई तरह के रोचक ब्लॉग उपलब्ध हैं। एक ब्लॉग पर मुझे एक मजेदार कार्टून दिखाई पड़ा। इस कार्टून में एक भैंस गोबर कर रही है और पास खड़ा उसका मालिक जोर-जोर से चिल्ला रहा है- मेरी भैंस ने आई पी एल कर दिया रे! इस वाक्य को पढ़कर अचानक ही हंसी आ जाती है किंतु यदि क्षण भर ठहर कर सोचा जाये कि भैंस का मालिक भैंस द्वारा गोबर की जगह आई पी एल करने से सुखी है कि दुखी तो बुध्दि चकरा कर रह जाती है!

इस देश में हर आदमी कह रहा है कि आई पी एल जैसी वारदात फिर कभी न हो किंतु वास्तव में तो वह केवल इतना भर चाह रहा है कि आई पी एल जैसी वारदात कोई और न कर ले। करोड़ों लोग हैं जो बाहर से तो आई पी एल को गालियाँ दे रहे हैं किंतु भीतर ही भीतर उनके मन में पहला, दूसरा और तीसरा लड्डू फूट रहा है काश यह सुंदर कन्या मेरे घर में रात्रिभर विश्राम कर ले अर्थात् एक बार ही सही, आई पी एल कर दिखाने का अवसर उसे भी मिल जाये।

कौन नहीं चाहेगा कि देश में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु पैदा हों और इस देश के लिये कुछ अच्छा करते हुए वे फांसी के फंदे पर झूल जायें। फिर भी अपने बेटे को कोई भगतसिंह, सुखदेव या राजगुरु नहीं बनने देता। अपने घर में तो वे धीरू भाई अम्बानी, ललित मोदी, राखी सावंत, सानिया मिर्जा, शाहरुक खान या महेन्द्रसिंह धोनी जैसी औलाद के जन्म की कामना करेगा ताकि घर में सोने-चांदी और रुपयों के ढेर लग जायें।

कभी-कभी तो लगता है कि देश में बहुत सारे लोग आई पी एल जैसे मोटे शिकार कर रहे हैं। मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष केतन देसाई के घर से एक हजार आठ सौ पचास करोड़ रुपये नगद और डेढ़ टन सोना निकला है तथा अभी ढाई हजार करोड़ रुपये और निकलने की आशंका है। यह घटना भी अपने आप में किसी आई पी एल से कम थोड़े ही है! केतन देसाई की गैंग ने करोड़ों रुपये लेकर मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने, थोड़े दिन बाद उसकी कमियां ढूंढकर मान्यता हटाने और दो करोड़ रुपये लेकर मान्यता वापस बहाल करने का खेल चला रखा था। रिश्वत बटोरने के इस महाआयोजन के लिये केतन देसाई ने भी आई पी एल की तर्ज पर बड़े-बड़े अफसरों और उनके निजी सचिवों की टीमों को बोलियां लगाकर खरीदा था।

अभी कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश में कुछ आई ए एस अफसरों के घरों से करोड़ों रुपये नगद, सोने चांदी के बर्तन और हीरे जवाहरत पकड़े गये थे। एक काण्ड में तो मियां-बीवी दोनों ही शामिल थे। दोनों ही प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी थे और उनकी भैंसें जमकर आईपीएल अर्थात् सोने का गोबर करती थीं। अब कोई दो-चार या दस-बीस भैंसें हों तो गिनायें। अब तो स्थान-स्थान पर भैंसें आई पी एल कर रही हैं। सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य किसी-किसी भैंस का आई पी एल ही चौरोहे पर आकर प्रकट होता है!

Saturday, April 24, 2010

हिन्दुस्तान रो रहा है!


आईपीएल को आज भले ही सैक्स (नंगापन), स्लीज (बेशर्मी) और सिक्सर्स (छक्कों) का खेल कहा जा रहा हो किंतु वास्तव में यह स्त्री, शराब और सम्पत्तिा का खेल है। जिन लोगों ने आई पी एल खड़ी की, उन लोगों ने स्त्री, शराब और सम्पत्तिा जुटाने के लिये मानव गरिमा को नीचा दिखाया तथा भारतीय संस्कृति को गंभीर चुनौतियां दीं। केन्द्रीय खेल मंत्री एम. एस. गिल आरंभ से ही आई पी एल के मैदान में चीयर गर्ल्स के अधनंगे नाच तथा शराब परोसने के विरुध्द थे। राजस्थान सरकार ने जयपुर में चीयर गर्ल्स को अधनंगे कपड़ों में नाचने की स्वीकृति नहीं दी और न ही खेल के मैदान में शराब परोसने दी।


जिस समय पूरे विश्व को मंदी, बेरोजगारी और निराशा का सामना करना पड़ा, वहीं हिन्दुस्तान में सबकी आंखों के सामने आईपीएल पनप गया। अरबों रुपयों के न्यारे-वारे हुए। सैंकड़ों करोड़ रुपये औरतों और शराब के प्यालों पर लुटाये गये। सैंकड़ाें करोड़ रुपये प्रेमिकाओं पर न्यौछावर किये गये। सैंकड़ों करोड़ का सट्टा हुआ। सैंकड़ों करोड़ का हवाला हुआ और सैंकड़ों करोड़ रुपयों में क्रिकेट खिलाड़ियों की टीमें बोली लगकर ऐसे बिकीं जैसे भेड़ों के झुण्ड बिकते हैं। शिल्पा शेट्टी जैसी फिल्मी तारिकायें सिल्वर स्क्रीन से उतर कर खेल के मैदानों में छा गईं। विजय माल्या जैसे अरब पतियों के पुत्र और सौतेली पुत्रियां आई पी एल की पार्टियों में ललित मोदी और कैटरीना कैफ जैसे स्त्री-पुरुषों से लिपट-लिपट कर उन्हें चूमने लगे।


जिस समय पूरा विश्व मंदी की चपेट में था, तब भारत में महंगाई का दैत्य गरज रहा था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह कैसे संभव है कि जब पूरी दुनिया मंदी की मार से जूझ रही है, भारत में दालों के भाव सौ रुपये किलो को छू रहे हैं! चीनी आसमान पर जा बैठी। दूध 32 रुपये किलो हो गया। मिठाइयों में जहर घुल गया। रेलवे स्टेशनों पर दीवार रंगने के डिस्टेंपर से बनी हुई चाय बिकने लगी। जाने कब और कैसे जनता की जेबों में एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये के नकली नोट आ पहुंचे।


आज हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि भारत के धन के तीन टुकड़े हुए। एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये तो नकली नोटों के बदले आतंकवादियों और तस्करों की जेबों में पहुंचे। पच्चीस लाख करोड़ रुपये स्विस बैंकों में जमा हुए और हजारों करोड़ रुपये (अभी टोटल लगनी बाकी है) आई पी एल के मैदानों में दिखने वाली औरतों के खातों में पहुंच गये। ये ही वे तीन कारण थे जिनसे भारत में महंगाई का सुनामी आया। एक तरफ जब देश में आई पी एल का अधनंगा नाच चल रहा था, तब दूसरी तरफ भारत का योजना विभाग यह समझने में व्यस्त था कि भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या कितनी है ताकि राज्यों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज का आवंटन किया जा सके। योजना आयोग की तेंदुलकर समिति ने भारत में बीपीएल परिवारों की संख्या 38 प्रतिशत बताई है किंतु कुछ राज्यों में यह 50 प्रतिशत तक हो सकती है। आई पी एल देखने वालों की जानकारी के लिये बता दूं कि बीपीएल उसे कहते हैं जिसे जीवन निर्वाह के लिये 24 घण्टे में 2100 कैलोरी ऊर्जा भी नहीं मिलती। यही कारण है कि आई पी एल और बीपीएल के बीच हिन्दुस्तान आठ-आठ ऑंसू रो रहा है।

Wednesday, April 21, 2010

धरती के भगवानो! क्या औरत के बिना दुनिया चल सकती है!

अहमदाबाद में कचरे की पेटी में पड़े हुए 15 कन्या भ्रूण मिले। कुछ भ्रूण कुत्ते खा चुके थे, वास्तव में संख्या 15 से कहीं अधिक थी। ये तो वे भ्रूण थे जो रास्ते पर रखी कचरे की पेटी में फैंक दिये जाने के कारण लोगों की दृष्टि में आ गये। यह कार्य तो पता नहीं चोरी–चोरी कब से चल रहा होगा! टी वी के पर्दे पर इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर आत्मा कांप उठी।

यह कैसी दुनिया है जिसमें हम रह रहे हैं! ये कौनसा देश है जिसकी दीवारों पर मेरा भारत महान लिखा हुआ रहता है किंतु कचरे के ढेरों में कन्याओं के भ्रूण पड़े मिलते हैं!क्या इसमें कोई संदेह है कि ये भ्रूण उन्हीं माताओं के गर्भ में पले हैं जिनकी सूरत में संतान भगवान का चेहरा देखती है! क्या इसमें भी कोई संदेह है कि ये गर्भपात उन्हीं पिताओं की सहमति और इच्छा से हुए हैं जिन्हें कन्याएं भगवान से भी अधिक सम्मान और प्रेम देती हैं! क्या इसमें भी कोई संदेह है कि ये गर्भपात उन्हीं डॉक्टरों ने करवाये है जिन्हें धरती पर भगवान कहकर आदर दिया जाता है!

देश में हर दिन कचरे के ढेर पर चोरी–चुपके फैंक दिये जाने वाले सैंकड़ों कन्या भ्रूण धरती के भगवानों से चीख–चीख कर पूछते हैं कि क्या औरतों के बिना यह दुनिया चल सकती है! इस सृष्टि में जितने भी प्राणी हैं उन्होंने अपनी माता के गर्भ से ही जन्म लिया है। भगवानों के अवतार भी माताओं के गर्भ से हुए हैं। जब माता ही नहीं होगी, तब संतानों के जन्म कैसे होंगे। यदि हर घर में लड़के ही लड़के जन्म लेंगे तो फिर लड़कों के विवाह कैसे होंगे। जिस वंश बेल को आगे बढ़ाने के लिये पुत्र की कामना की जाती है, उस पुत्र से वंश बेल कैसे बढ़ेगी यदि उससे विवाह करने वाली कोई कन्या ही नहीं मिलेगी!

आज भारत का लिंग अनुपात पूरी तरह गड़बड़ा गया है। उत्तर भारत में यह कार्य अधिक हुआ है। लाखों लोगों ने अपनी कन्याओं को गर्भ में ही मार डाला। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा देश के सर्वाधिक समृद्ध, शिक्षित और विकसित प्रदेश माने जाते हैं, इन्हीं प्रदेशों में गर्भपात का जघन्य अपराध सर्वाधिक हुआ। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी किसी से पीछे नहीं। जब से लोगों के मन में धर्म का भय समाप्त होकर पैसे का लालच पनपा है और ईश्वरीय कृपा के स्थान पर पूंजी और टैक्नोलोजी पर भरोसा जमा है, तब से औरत चारों तरफ से संकट में आ गई है।

पिताओं और पतियों के मन में चलने वाला पैसे का गणित, औरतों के जीवन के लिये नित नये संकट खड़े कर रहा है। एक तरफ तो औरतों को पढ़ने और कमाने के लिये घर से बाहर धकेला जा रहा है। दूसरी ओर सनातन संस्कारों और संस्कृति से कटा हुआ समाज औरतों को लगातार अपना निशाना बना रहा है। यही कारण है कि न्यूज चैनल और समाचार पत्र महिलाओं के यौन उत्पीड़न, बलात्कार और कन्या भ्रूण हत्याओं के समाचारों से भरे हुए रहते हैं। आरक्षण, क्षेत्रीयता और भाषाई मुद्दों पर मरने मारने के लिये तुले रहने की बजाय हमें अपने समाज को सुरक्षित बनाने पर ध्यान देना चाहिये, इसी में सबका भला है।

Monday, April 19, 2010

मो देखत मो दास दुखित भयौ, यह कलंक हौं कहाँ गवैहों ?

इस बार फिर ब्रजभूमि जाना हुआ। वही ब्रजभूमि जिसकी धूल का स्पर्श करने के लिये सहस्रों वर्षों से भारत के कौने-कौने से श्रध्दालु आते हैं। वही ब्रजभूमि जिसके स्मरण मात्र से विष्णु भक्तों का रोम-रोम पुलकित हो जाता है। वही ब्रजभूमि जिसकी पावन धरा का स्पर्श करने के लिये स्वयं यमुनाजी हजारों किलोमीटर की यात्रा करके पहुंचती हैं और ब्रज की धूल में लोट-लोट कर स्वयं को धन्य अनुभव करती हैं। वही ब्रजभूमि जिसे काशीवास के बराबर महत्व मिला हुआ है किंतु खेद है मुझे! ऐसी पवित्र ब्रजभूमि में पहुंचकर इस बार मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुई। प्रसन्नता तो दूर मेरे रोम-रोम में कष्ट का संचार हो गया।

कभी चराते होंगे किशन कन्हाई यमुनाजी के कछार में गौऐं! कभी करते होंगे वे जगज्जननी राधारानी का शृंगार करील कुंजों में छिपकर! कभी उठाया होगा उन्होंने गिरिराज इन्द्र का मान मर्दन करने के लिये! कभी मारा होगा उन्होंने कंस को मथुरा में! कभी नाची होगी मीरां वृंदावन की कुंज गलियों में! कभी गाये होंगे हरिदास निधि वन में! कभी रोये होंगे सूर और रैदास गौघाट पर बैठकर। कभी किया होगा भगवान वल्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म का उध्दार जतिपुरा में! कभी लुटाये होंगे राज तीनों लोकों के रहीम और रसखान ने इस ब्रजभूमि पर! किंतु आज का ब्रज विशेषकर मथुरा और वृंदावन, भीड़ भरी बदबूदार गलियों वाले गंदे नगरों से अधिक कुछ भी नहीं है।

पूरे देश से लाखों लोग प्रतिदिन मथुरा और वृंदावन पहुंचते हैं। उन्हें भी मेरे ही समान निराशा का सामना करना पड़ता है जब वे देखते हैं कि यमुनाजी का श्याम जल अब पूरी तरह कोलतार जैसा काला, गंदा और बदबूदार हो गया है। उसमें आचमन और स्नान करना तो दूर रहा, कोई लाख चाहकर भी यमुनाजी के जल को स्पर्श नहीं कर सकता। देश भर से पहुंचे ये लाखों लोग वृंदावन में गंदगी, भीड़ और शोर पैदा करते हैं। शांति तो जैसे मथुरा और वृंदावन से पूरी तरह से मुंह छिपाकर कोसों दूर भाग गई है।

मथुरा में भगवान की जन्मभूमि तथा द्वारिकाधीश का मंदिर मुख्य हैं। जन्मभूमि के दर्शनों के लिये कड़ी सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ता है। भयभीत कर देने वाले कठोर चेहरों के तीन-तीन सुरक्षाकर्मी एक ही व्यक्ति को तीन-तीन बार टटोलते हैं। पूरे शरीर पर वे अपने मोटे, खुरदुरे हाथ चमड़ी पर गड़ा-गड़ाकर फेरते हैं जिसके कारण शरीर पर झुरझुरी सी दौड़ जाती है। वे पैण्ट-शर्ट की जेबों को तो टटोलते ही हैं, साथ ही आदमी की जांघों के बीच भी छानबीन करते हैं जिससे उनके हाथ आदमी के जननांगों से छूते हैं। जब उन्हें पूरी तसल्ली हो जाती है कि आदमी इस जांच से पूरी तरह तिलमिला गया है, तब कहीं जाकर वे छोड़ते हैं। महिला दर्शनार्थियों की ऐसी ही जांच महिला सुरक्षाकर्मियों द्वारा की जाती है। यह सुरक्षा जांच आदमी की गरिमा को ठेस पहुंचाती है जिसे कुछ तथाकथित वीआईपी को छोड़कर शेष सब को झेलना पड़ता है किंतु कहीं कोई प्रतिरोध नहीं होता।

वृंदावन में मंदिरों की संख्या बहुत अधिक है फिर भी वहाँ रंगजी का मंदिर और बांके बिहारी का मंदिर मुख्य है। बांके बिहारी के मंदिर में तिल धरने को भी स्थान नहीं मिलता। अवकाश के दिन तो पूरी दिल्ली जैसे वहां उमड़ पड़ती है। वृंदावन के बंदर आदमी की ऑंखों पर से चश्मा उतार कर ले भागते हैं और तभी वापस करते है जब उन्हें कुछ खाने को दे। मथुरा और वृंदावन में चारों ओर ब्रजवासी पेड़े वाले के नाम से कई दुकानें खुली हुई हैं जिनमें खराब स्वाद के पेड़े बिकते हैं। दुकानों पर पानी मिला हुआ दूध बिकता है जिसमें पीला रंग मिलाकर उसे गाय का असली दूध जैसा दिखाने का प्रयास किया जाता है। ऐसी ब्रजभूमि अब किसी को आनंद नहीं देती।

Sunday, April 18, 2010

क्या जावा और सी प्लस प्लस के समक्ष देशज भाषायें टिक पायेंगी !

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही राजस्थान में राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूचि में संलग्न करवाये जाने को लेकर आंदोलन चल रहा है। संभवत: इतनी बड़ी अवधि तक भारत भर में आज तक और कोई आंदोलन नहीं चला किंतु फिर भी इस आंदोलन को सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। इसका सबसे बड़ा कारण इस आंदोलन को व्यापक जन समर्थन प्राप्त नहीं होना है। जब भी इसे मान्यता देने की बात जोर-शोर से उठती है तो मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, वागड़ी आदि बोलियां आपस में लड़ने लग जाती हैं। दबे स्वर में चूरू, सीकर और झुंझुनू से शेखावाटी भाषा; धौलपुर, भरतपुर और करौली से ब्रजभाषा; अलवर और भरतपुर से मेवाती भाषा; झालावाड़, कोटा और चित्तौड़गढ़ से मालवी भाषा; श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ से पंजाबी भाषा; और गुजरात से लगते हुए कुछ जिलों से गुजराती भाषायें भी रोष प्रकट करने लगती हैं।

जिस प्रकार किसी समृध्द बगीचे में कोई एक पुष्प नहीं होता, पुष्पों का विशाल परिवार होता है, उसी प्रकार वीर प्रसूता धरा के रूप में विख्यात राजस्थान में भाषाओं और बोलियों का एक विशाल गुच्छा है जिसका प्रत्येक पुष्प मनमोहक एवं चटखीले रंगों वाला है। प्रत्येक भाषा की मनभावनी मीठी सुगंध है। राजस्थान में इतनी बोलियाँ बोली जाती हैं कि प्रत्येक 10-12 किलोमीटर की दूरी पर बोली बदल जाती है। प्रत्येक क्षेत्र और जाति की अपनी बोली है जो कुछ अंतर के साथ बोली जाती है।

अहीरी, भोपाली, लुहारी, जंभूवाल, कोरा बंजारी, अहीरवाटी, भोपारी, गाडौली, लमानी, अगरवाली, भुआभी, गोडवानी, जैसलमेरी, अजमेरी, बीकानेरी, गोजरी, झामरल, लश्करी, अलवरी, चौरासी, गोल्ला, जोधपुरी, बाचड़ी, छेकरी, लाहोरी राजस्थानी, गुजरी, कालबेली, बागड़ी, अंडैरी, गर्वी, खेराड़ी, महाजनी, ढांडी, हाड़ौती, कांचवाड़ी, बंगाला, ढूण्डारी, हत्तिया की बोली, खण्डवी, महाराजशाही, बनजारी, डिंगल, किर, महेसरी, बेतुली, गाड़िया, जयपुरी, किशनगढ़ी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, नीमाड़ी, राजहरी, सिपाड़ी, गाेंड़ी मारवाड़ी, मेवाती, ओसवाली, राजवाटी, सोंडवाड़ी, नागौरी, पल्वी, राजपुतानी, टडा, मेजवाड़ी, नगर, चोल, पटवी, राजवाड़ी, थली, माधुरी बंजारी, नाइकी बंजारी, शेखावाटी, उज्जैनी आदि बोलियों के नाम तो मैं भी गिना सकता हूँ जबकि वास्तविक बोलियों की संख्या अत्यधिक है। इनमें से मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, मेवाती, मालवी और बागड़ी बोलने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक है।

इतनी सारी बोलियों के विद्यमान रहते यह प्रश्न सदा ही परेशान करता है कि राजस्थानी भाषा का वास्तविक रूप कौनसा है! एक समय था जब राजपूताने के संत, कवि राजे-महाराजे, राजकुमारियां, चारण, भाट और जन सामान्य ब्रज भाषा में कविता करने को ही कविता की कसौटी मानते थे। चाहे कोटा, किशनगढ़, उदयपुर और जयपुर के राजे-महाराजे अथवा जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और सिरोही की राजकुमारियां, सबने अपने आप को ब्रज में कविता करके धन्य माना। वस्तुत: आज जिन मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती आदि भाषाओं को हम राजस्थानी भाषा के रूप में जानते हैं, वे सब भाषायें डिंगल में से निकली हैं और जिस भाषा को हम भाषाओं की राजरानी ब्रजभाषा के रूप में जानते हैं, वह पिंगल से निकली हैं। इतिहास साक्षी है कि डिंगल और पिंगल सगी बहनें हैं और इन दोनों ने भाषाओं की महामाता संस्कृत के गर्भ से जन्म लिया है।

आज के युग में वास्तविक समस्या यह नहीं है कि किन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा अथवा निकाला जाये! आज के समय में वास्तविक समस्या यह है कि जब अंग्रेजी, रूसी, जर्मनी, जापानी और हिन्दी जैसी अति विकसित भाषायें भी कम्प्यूटर की सी प्लस-प्लस और जावा जैसी आरंभिक भाषाओं के समक्ष प्रभावहीन हो गई हैं तब क्या हमारी देशज भाषाएं आने वाले रोबोटिक युग पर शासन करने वाली नैनो टैक्नोलॉजी के भीषण प्रहारों का सामना कर सकेगी!

Saturday, April 17, 2010

जिन्हें साइकिल नसीब नहीं थी, हवाई जहाज में उड़ रहे हैं!

जब से देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण की हवा बहनी आरंभ हुई, देश में पूंजी का तेजी से प्रसार हुआ। इस पूंजी ने देश के आम आदमी को बदल कर रख दिया। हर आदमी पूंजी के पीछे बेतहाशा दौड़ पड़ा। धनार्जन के सम्बन्ध में पवित्र-अपवित्र का भाव लुप्त हो गया। बहुत से लोग जिन्हें साइकिलें भी नसीब नहीं थीं, कारों और हवाई जहाजों में चलने लगे। लोगों के बैंक बैलेंस फूलकर मोटे हो गये।
जमीनों के भाव आसमान छूने लगे, कारों के आकार बड़े हो गये। मोटर साइकिलों की गति तेज हो गई। बच्चे आई. आई. एम., आई. आई. टी. और एम्स में पढ़ने लगे। पांच सितारा होटलों में रौनकें बढ़ गईं। डांस बार, पब और मॉल धरती फोड़ कर कुकुरमुत्तों की तरह निकल आये। महंगे अस्पतालों की बाढ़ आ गई। कोचिंग सेंटर फल-फूल गये। हर कान पर मोबाइल लग गया। कम्प्यूटर, लैपटॉप, ब्रॉडबैण्ड और साइबर कैफे आम आदमी की पहुंच में आ गये।

उदारीकरण के बाद भारतीय समाज में पूंजी के प्रति आकर्षण और लालच इतना अधिक बढ़ा कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा पूंजी 25 लाख करोड़ रुपये तक जा पहुँची। देश में 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की नकली मुद्रा फैल गई। जो दालें 20 रुपये किलो मिलती थीं, 100 रुपये का भाव देख आईं। बंदरगाहों पर चीनी सड़ती रही और देश में चीनी के लिये त्राहि-त्राहि मच गई। एफसीआई के गोदामों में गेहँ पर चमगादड़ें मल त्यागती रहीं और गेहूँ का भाव 17-18 रुपये किलो हो गया। दवाओं में लोहे की कीलें निकलने लगीं। रेलवे स्टेशनों पर दीवारें पोतने के रंग से चाय बनने लगी। घी में पशुओं ही नही आदमी की हव्यिों की चर्बी मिलाई जाने लगी।

पूंजी को भोगने के लिये एक विशेष प्रकार की मानसिकता चाहिये। इस मानसिकता को पुष्ट करने के लिये देश के नागरिकों को विशेष प्रकार के संवैधानिक अधिकार चाहियें। यही कारण है कि उदारीकरण के दौर में देश में नये-नये कानून बन रहे हैं। लोकतंत्र की नई-नई व्याख्याएं हो रही हैं। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को नये सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। देश में समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता दे दी गई है। स्त्री-पुरुषों को विवाह किये बिना ही एक साथ रहने की छूट भी मिली है। अब घर की महिलाओं से कोई यह नहीं पूछ सकता कि तेरे साथ यह जो अजनबी पुरुष आया है, यह कौन है? क्यों आया है? और कब तक घर में रुकेगा? लड़कियां ही नहीं लड़कियों की लड़कियां भी अपने नाना और मामा की सम्पत्तिा में हिस्सेदार बना दी गईं हैं। अर्थात् कल तक जो अनैतिक था, मार्यादा विहीन था, अकल्पनीय था, आज वह अचानक ही संवैधानिक मान्यता प्राप्त पवित्र कर्म हो गया।

टेलिविजन ने स्त्री-पुरुष के अंतरंग प्रसंगों को मनोरंजन का विषय बना दिया। ये दृश्य बच्चों के देखने के लिये भी सुलभ हो गये। रियेलिटी शो, डांस शो तथा लाफ्टर शो फूहड़ता और अश्लीलता के प्रसारक बने। इस कारण भारतीय बच्चे भी तेजी से बदल गये। कई स्थानों पर स्कूली बच्चों ने अपनी अध्यापिकाओं के साथ बलात्कार किये तो अध्यापकों ने भी अपनी शिष्याओं के साथ काला मुंह करने में कसर नहीं छोड़ी। चलती कारों और ट्रेनों में भी बलात्कार होने लगे।

इन सब बातों का हमारे देश की सामाजिक संरचना पर व्यापक असर हुआ है। यदि यह कहा जाये कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद भारतीय समाज इतनी तेजी से बदला, जितनी तेजी से वह अपने विगत एक हजार वर्षों के इतिहास में भी नहीं बदला तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Friday, April 16, 2010

कुली कर लो केवल बीस रुपये में !

भारतीय रेलवे संसार की चौथे नम्बर की सबसे बड़ी रेलवे है। लाखों यात्री प्रतिदिन भारत भर में फैले रेलवे स्टेशनों पर पहुंचते हैं। परम्परागत रूप से भारतीय लोग घर का बना हुआ भोजना खाना और अपने स्वयं के बिस्तरों में सोना पसंद करते हैं। इसलिये स्वाभाविक ही है कि विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा भारतीयों के पास यात्रा के दौरान सामान अधिक होता है किंतु पूरे भारत में बूढ़ों, बीमारों, बच्चों, औरतों और यहाँ तक कि गर्भवती औरतों को भी रेलवे स्टेशनों पर भारी सामान ढोते हुए देखा जा सकता है। बहुत कम लोग हैं जो कुली की सेवाएं प्राप्त करते हैं। अधिकतर यात्री मन ही मन कुलियों के द्वारा मांगे जाने वाले भारी भरकम पारिश्रमिक से डरे हुए होते हैं। विवशता होने तथा अन्य कोई उपाय नहीं होने की स्थिति में ही वे कुली को आवाज लगाने का दुस्साहस करते हैं। धनी लोगों की बात छोड़ दें। उन्हें कुलियों द्वारा मांगे जाने वाले पारिश्रमिक से डर नहीं लगता।

रेलवे ने कुलियों द्वारा एक फेरे में ढोये जाने वाले सामान का भार तथा उसके पारिश्रमिक की दर निर्धारित कर रखी है जो कि समय-समय पर बढ़ती रहती है। शायद ही कोई कुली रेलवे द्वारा निर्धारित दर पर सामान ढोता है। अक्सर वे दो गुने से लेकर पांच गुने तक पैसे मांगते हैं। यात्रियों को कुलियों से मोलभाव करना पड़ता है और प्राय: कुली द्वारा मांगे गये पारिश्रमिक पर ही समझौता करना पड़ता है या फिर मन मारकर बोझ स्वयं उठाना पड़ता है। जो लोग कुली करते हैं, उन्हें कुलियों को भुगतान करते समय उनसे वाक्युध्द करना पड़ता है। इस दौरान कुलियों का झुण्ड जमा हो जाता है और वे मिलकर यात्री के साथ बुरा व्यवहार करते हैं और यात्री को अपमान का घूंट पीना पड़ता है। यात्री को कुली की ही इच्छा पूरी करनी पड़ती है। बहुत कम कुली ऐसे हैं जो यात्रियों से गरिमामय व्यवहार करते हैं।

कुलियों का काम कैसा है और उसमें कितनी कमाई है, इसका अनुमान लगाने के लिये एक ही उदाहरण पर्याप्त है। दो-तीन साल पहले रेलवे ने कुलियों को प्रस्ताव दिया कि वे चाहें तो रेलवे में गेंगमैन की पक्की नौकरी पर लग जायें। इस प्रस्ताव से कुलियों की बांछें खिल गईं। उन्होंने रेलवे स्टेशनों पर भांगड़ा किया और गैंगमैन बन गये। रेलवे की पक्की नौकरी में मोटा वेतन, निशुल्क यात्रा पास, निशुल्क चिकित्सा और रेलवे क्वार्टर जैसी सुविधायें मिलती हैं जो प्राय: दूसरे विभागों के कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं हैं। इन्हीं सुविधाओं के लिये कुलियों ने गैंगमैन बनना स्वीकार किया था किंतु जब उन्हें गैंगमैन का काम करने को दिया गया तो उनकी ऑंखों के सामने दिन में ही तारे प्रकट हो गये। दूर-दूर तक बिछे हुए रेलवे ट्रैक पर भरी धूप में गैंती-हथौड़े चलाने का काम वे नहीं कर सके। उन्हें तो रेलवे स्टेशनों पर लगे शेड की छाया, कूलरों का ठण्डा पानी, पंखों की हवा, यात्रियों से वसूले जाने वाले मोटे पारिश्रमिक की याद आने लगी और अब देश भर में हजारों कुली अपने पुराने काम पर लौटना चाहते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुली का काम और उसकी कमाई गैंगमैनों की तुलना में अच्छी है।

रेलवे को चाहिये कि वह कुलियों की मनमानी को रोकने के लिये कुली के कुर्ते पर तथा रेलवे स्टेशन पर कई स्थानों पर कुलियों की भाड़ा दर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे क्योंकि कुली अपनी मनमानी केवल इसलिये करते हैं कि लोगों को उनकी वास्तविक भाड़ा दर ज्ञात नहीं होती। रेलवे स्टेशनों पर बार-बार की जाने वाली घोषणाओं में भी कुली की भाड़ा दरों को बताया जाना चाहिये। कुलियों की इस मनमानी के बीच एक अच्छी सूचना भी है। जोधपुर रेलवे स्टेशन पर एक कुली गाड़ियों पर यह आवाज लगाता हुआ घूमता है- कुली कर लो, केवल बीस रुपये में।

Thursday, April 15, 2010

धुऑं बहुत है कोटा की गलियों में !

कोटा को शिक्षा की नगरी कहना वस्तुत: सम्पूर्ण राजस्थान की शिक्षा पध्दति का अपमान करना है। राजस्थान सरकार ने पूरे प्रदेश में हजारों विद्यालय, सैंकड़ों महाविद्यालय और दर्जन भर विश्वविद्यालय खोल रखे हैं। पूरे प्रदेश में इंजीनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों, व्यावसायिक शिक्षा के महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का जाल बिछा हुआ है। इसी प्रकार निजी क्षेत्र में भी हजारों अच्छे विद्यालय एवं सैंकड़ों अच्छे महाविद्यालय खुले हुए हैं। बहुत सी संस्थओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी की मान्यता मिली हुई है। फिर क्या कारण है कि कोटा को शिक्षा की नगरी कहा जाये! मेरे विचार से जिस प्रकार कोटा किसी समय औद्योगिक नगरी हुआ करता था, उसी प्रकार अब शिक्षा का बाजार भर है।

विगत डेढ़-दो दशकों में कोटा में कुछ कोचिंग सेंटर ऐसे खुल गये हैं जो ये दावा करते हैं कि उनके यहां पढ़ने वाले बच्चे ही आई. टी. आई. अथवा मेडिकल की परीक्षा में उत्ताीर्ण होते हैं। वास्तव में उनके दावे झूठे हैं। उन्होंने शिक्षा का बाजारीकरण किया है। उन्होंने बच्चों और उनके अभिभावकों को सुनहरे सपने दिखाकर उनके धन और भविष्य से खिलवाड़ करने के कारखाने खोल रखे हैं। जब पूरे देश के प्रतिभावान छात्र कोटा में आकर तैयारी करेंगे तो निश्चित ही है कि कोटा से चयनित होने वाले छात्रों की संख्या पूरे देश के नगरों की अपेक्षा अधिक होगी। यदि ये बच्चे कोटा न आयें और अपने प्रदेश तथा नगर में रहकर ही तैयारी करें तो उनका चयन फिर भी होगा। कोटा के कोचिंग सेंटरों की उपस्थिति से उन्हें लाभ नहीं है, हानि है। क्योंकि इन प्रतिभावान बच्चों को भी कोटा जाना ही पड़ता है। उन्हें यह भय सताता है कि यदि वे कोटा नहीं गये तो कम प्रतिभावान बच्चे बाजी मार ले जायेंगे।

रही बात कम प्रतिभावान बच्चों के चयन की। उन्हें उनके माता-पिता अपने मन के लालच के कारण कोटा की ओर जबर्दस्ती धकेलते हैं। माता-पिता को लगता है कि यदि दो-चार लाख रुपये खर्च करके बच्चे का भविष्य सुधर जाये तो अच्छा है। इनमें से कुछ ही बच्चे ऐसे होते हैं, जो कोचिंग सेंटरों के कठोर प्रशिक्षण के बल पर सफलता प्राप्त करते हैं। अधिकांश बच्चों को असफलता मिलती है। कोचिंग सेंटरों की कठिन पढ़ाई उनके वश की बात नहीं होती। इसलिये बहुत से बच्चे कोटा पहुंचकर सिनेमा देखने, वीडियो पार्लर में गेम्स खेलने, जूस पीने, चाट-पकौड़ी खाने में लग जाते हैं। कुछ बच्चे घोर निराशा, अकेलापन और अवसाद की स्थिति में पहुंचकर कोटा की गलियों में सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर उड़ाते हैं। कुछ को शराब की लत लग जाती है। कुछ बच्चे नशीली दवाओं के रैकेट में फंस जाते हैं। कुछ बच्चे इन सब कामों में इतना धन खराब कर देते हैं कि वे मोबाइल चुराकर बेचने से लेकर, दुकानों में छोटी-मोटी चोरियां करने लग जाते हैं। कुछ बच्चों को तो पोस्ट ऑफिस में डकैती करते हुए भी पकड़ा जा चुका है।

पिछले साल करौली में रहने वाले बच्चे ने अपने ही अपहरण का ड्रामा रचा। परीक्षा देने से बचने के लिये वह तीन दिन तक नोएडा में जाकर छिपा रहा। जब परीक्षा समाप्त हो गई तो उसने पुलिस के समक्ष उपस्थित होकर अपने अपहरण की झूठी कहानी सुनाई। इसीलिये यदि यह कहा जाये कि कोटा की गलियों में धुंआ बहुत है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Tuesday, April 13, 2010

बहुत कठिन है डगर कोटा की !


राजस्थान का कोटा शहर! लाखों किशोर-किशोरियों का मन जहां कल्पनाओं की उड़ान भरकर पहुचंता है और कोटा की गलियों में खड़े कोचिंग सेंटरों को देखकर ठहर सा जाता है। कोटा के नाम से ही अभिभावकों के हृदय में गुदगुदी होने लगती है। उन्हें लगता है कि उनका बच्चा यदि एक बार किसी तरह कोटा पहुंच जाये तो फिर जीवन भर का आराम ही आराम। बच्चे के फ्यूचर और कैरियर दोनों के बारे में चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाये। यही कारण है कि देश भर से लगभग 35 हजार छात्र-छात्राऐं हर साल कोटा पहुंचकर अपना डेरा जमाते हैं। एक साल से लेकर तीन-चार साल तक वे मोटी-मोटी किताबों में सिर गाढ़ कर दिन-रात एक करते हैं। इन दो-तीन सालों में माता-पिता अपनी जमा पूंजी का बड़ा हिस्सा झौंकते हैं ताकि किसी तरह उनके बच्चे का भविष्य संवर जाये।

अंतत: वह दिन भी आता है और हर साल बहुत से बच्चों की वह आस पूरी होती है जिसकी लालसा में वे कोटा पहुंचते हैं। कुछ सौ बच्चे पीएमटी और सीपीएमटी परीक्षाओं में और कुछ सौ बच्चे आई आई टी परीक्षा में सफलता पाते हैं। बाकियों की उम्मीदों को करारा झटका लगता है। फिर भी बहुत से बच्चे डेंटल और ए आई ई ई ई जैसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर जान बची तो लाखों पाये वाले भाव से कोटा छोड़ते हैं। हर साल 35 हजार छात्रों में से लगभग 5 हजार छात्र-छात्रा ही ऐसे होते हैं जिन्हें आशा जनक या संतोष जनक सफलता मिलती है। शेष 30 हजार छात्रों और उनके अभिभावकों के साथ बुरी बीतती है। उन्हें ऐसा अनुभव होता है मानो सोने का सूरज प्राप्त करने की आशा में नीले आकाश में उड़ते हुए पंछी के पंख अचानक झुलस गये हों। उनके सपने-उनकी उम्मीदें, भविष्य को लेकर की गई कल्पनायें बिखर जाती हैं। काले दैत्य जैसी क्रूर सच्चाई असफलता के तीखे दंत चुभाने के लिये मुंह फाड़कर सामने आ खड़ी होती है।

तेरह-चौदह साल का मासूम किशोर तब तक सत्रह-अठारह साल का युवक बनने की तैयारी में होता है। वह असफलता का ठप्पा लेकर घर वापस लौटता है। माता-पिता ताने देते हैं। भाई-बहिन हंसते हैं। यार-दोस्त चटखारे ले-लेकर उसे छेड़ते हैं। जी-तोड़ परिश्रम के उपरांत भी असफल रहा युवक तिलमिला कर रह जाता है। उनमें से बहुत से युवक भटक जाते हैं। शराब और सिगरेट का सहारा लेते हैं। सिनेमा देखकर अपने मन की उदासी दूर करने का प्रयास करते हैं। बहुतों को किताबों से एलर्जी ही हो जाती है। ऐसे बहुत कम ही युवक होते हैं जिन्हें परिवार वाले ढाढ़स बंधाते हैं और फिर से कोई नई कोशिश करने के लिये प्रेरित करते हैं। कुछ माता-पिता ऐसे भी होते हैं जो बच्चे के कोटा रहने का खर्च उठाते-उठाते कंगाली के दरवाजे पर जा खड़े होते हैं। घर पर दो-चार लाख रुपये का कर्ज भी हो जाता है। इस कारण दूसरे बच्चों की सामान्य पढ़ाई में भी बाधा आती है। कई बार तो बच्चे की असफलता और परिवार में आई आर्थिक विपन्नता का पूरे परिवार पर इतना गहरा असर होता है कि माता-पिताओं के बीच विवाद उठ खड़े होते हैं। मामला परिवार के टूटने और तलाक के लिये कोर्ट तक जा पहुंचता है। इतना सब हमारे बीच हर साल घट रहा है किंतु अधिकांश माता-पिता बिना कोई आगा-पीछा सोचे-समझे अपने बच्चों को कोटा की तंग गलियों की ओर धकेल रहे हैं।