Tuesday, May 25, 2010
जिन्दगी हमेशा के लिये उनका चालान काट चुकी है !
वाहनों से खचाखच भरी सड़कें। दु्रत गति से दौड़ती मोटर साइकिलें, बेतहाशा भागती कारें, पगलाई हुई सी लोडिंग टैक्सियां, बेचैन आत्माओं की तरह भटकते थ्री व्हीलर और इन सबके बीच सर्र–सर्र निकलते साइकिल सवार। जिधर देखो अफरा–तफरी का माहौल। मानो कायनात में जलजला आ गया हो, कहीं आग लग गई हो या शहर पर एलियन्स का हमला हो गया हो। कहाँ जा रहे हैं ये सब लोग इतनी हड़बड़ाहट में! क्या हो जायेगा इतनी तेज दौड़कर! कोई रेस हो रही है क्या? लगभग हर तीसरी मोटर साइकिल पर तीन आदमी सवार हैं किसी–किसी पर तो चार भी! बच्चे अलग से। अधिकतर दुपहिया वाहन चालकों के सिर पर हेलमेट नहीं हैं। कार चालकों को सीट बैल्ट बांधने से परहेज है। वे चौराहों पर से निकलते समय भी वाहन धीमा नहीं करते और मोबाइल पर बातें कर रहे होते हैं।
ऐसा ही रोज का माहौल आज भी रिक्तियां भैंरूजी चौराहे पर था। एक आदमी अपनी मोटर साइकिल पर तीन सवारियों सहित, बिना हैलमेट बांधे और कान पर मोबाइल फोन लगाये तेजी से पाली की तरफ से आया। मोटी स्थूल काया। कानों में सोने के लूंग। महंगा मोबाइल फोन। देह पर पढ़े–लिखे लोगों जैसी अच्छी तरह इस्तरी की हुई पैण्ट शर्ट। उसे रेलवे की खतरनाक पुलिया की तरफ जाना था। अचानक उसकी दृष्टि चौराहे के निकट खड़े यातायात पुलिस कर्मियों पर पड़ी। उन्होंने चार–पांच मोटर साइकिलें पकड़ रखी थीं। कुछ मोटर साइकिलें, वाहन जब्त करने वाली क्रेन से बंधी थीं। उसने कसकर ब्रेक दबाये। पीछे तेजी से भागती चली आ रही मोटर साइकिल ने भी ब्रेक मारे किंतु टक्कर तो होनी ही थी, सो होकर रही। पीछे बैठी सवारियों के चोट लगना स्वाभाविक था, सो लगी ही किंतु यहाँ चोट की परवाह किसे थी! कहावत तो यह है कि गधा, गधे की लात से नहीं मरता किंतु मोटर साइकिल की टक्कर से मोटर साइकिल वाले मरते हुए देखे गये हैं। कानों में लूंग वाले मोटर साइकिल चालक ने चाहा कि वह मुड़कर पीछे की तरफ भाग जाये किंतु इससे पहले कि वह ऐसा कर पाता, ट्रैफिक पुलिस के सिपाही ने दौड़कर उसे धर दबोचा। मारे गये गुलफाम! आ गया ऊँट पहाड़ के नीचे!
अभी उसका चालान कट ही रहा था कि दो तीन मोटर साइकिलें धड़धड़ाती हुई आ पहुँचीं। उनका भी नजारा पहले वाली मोटर साइकिल जैसा। एक बोलेरो वाला मोबाइल पर बात करता हुआ सौ की स्पीड से निकला। अब इतने ट्रैफिक पुलिसकर्मी कहाँ से आते! सो ये लोग नसीब वाले निकले और पुलिसकर्मियों के ठीक पास से होकर भाग छूटे। पुलिसकर्मी चालान काटकर बोला, यहाँ दस्तखत करो। वह बगलें झांकने लगा। अरे सोच क्या रहा है, दस्तखत कर! मुझे दस्तखत करने नहीं आते, अंगूठा लगाऊंगा। पुलिसकर्मी को विश्वास नहीं हुआ, लगता तो पढ़ा लिखा है, झूठ बोलता है! पुलिसकर्मी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा। नहीं, झूठ नहीं बोल रहा, वह हकलाया।
मैं भी वहीं खड़ा काफी देर से तमाशा देख रहा था। सौ–सौ जूते खाय, तमाशा घुसकर देखें वाली आदत जो ठहरी। अचानक सामने एक विकलांग आता हुआ दिखाई दिया। उसके दोनों पैर खराब थे, वह सड़क पर हाथों के सहारे घिसट रहा था। उसे देखकर सिर घूम गया। अचानक खयाल आया कि इस दुनिया में एक ओर ऐसे लोग हैं जो बेतहाशा भागकर जाने कहां पहुंचना चाहते हैं और एक ओर ऐसे लोग भी हैं जिन्हें कुदरत ने पांव ही नहीं दिये। जिन्दगी जैसे हमेशा के लिये उनका चालान काट चुकी है।
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sundar aur sandeshprad aalekh...
ReplyDeleteविचारणीय ....प्रेरणादायी लेख ...
ReplyDeletenice post, i should think over it
ReplyDeleteआज दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट दूसरा सिरा शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब के लिए http://blogonprint.blogspot.com/2010/05/blog-post_29.html पर क्लिक कर सकते हैं।
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