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Thursday, December 31, 2009

भारतवासी यूरोपीय लोगों की संतान नहीं हैं !

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डॉक्टर डेविड रेक और उनके सहयोगियों की नवीनतम खोज के हवाले से कुछ दिनों पूर्व दुनिया भर के समाचार पत्रों में एक सनसनीखेज समाचार छपा कि भारतवासी यूरोपीय और द्रविड़ों की संतान हैं। वस्तुत: इस तरह के समाचार लिखने वाले लोग एक खास मानसिकता की जेल में बंद हैं। उनको इन्द्रधनुष के सातों रंग हरे ही दिखाई देते हैं। पहले यह जान लेना विशेष दलचस्प होगा कि हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डॉक्टर डेविड रेक और उनके सहयोगियों की नवीनतम खोज है क्या? इन वैज्ञानिकों ने वैज्ञानिक विधियों से आनुवांशिकीय प्रमाणों के आधार पर यह पता लगाने का प्रयास किया कि आनुवांशिकीय दृष्टि से भारतीय लोग विश्व की किस जाति या सभ्यता के निकट हो सकते हैं।

उन्होंने जो जैविक एवं आनुवांशिकीय प्रमाण प्राप्त किये उनके आधार पर उनकी शोध का परिणाम यह रहा कि आनुवांशिक दृष्टि से भारत में दो जातियां बसती हैं। इनमें से पहली जाति उत्तर भारत में रहती है जो आनुवांशिक दृष्टि से यूरोपीय देशों में रहने वाले मानव समुदाय के निकट है। दूसरी जाति दक्षिण भारत में बसती है जो आनुवांशिक दृष्टि से प्राचीन द्रविड़ जाति के निकट है। शोध के ये परिणाम वाशिंगटन की नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुए। इन परिणामों के आधार पर शुक्रवार को भारत के समाचार पत्रों में यह समाचार प्रकाशित हुआ भारतवासी यूरोपीय और द्रविड़ों की संतान हैं। जबकि डॉक्टर डेविड रेक और उसकी टीम के शोध परिणामों से यह कहाँ सिद्ध होता है कि भारतीय यूरोपियों की संतान हैं! यह भी तो हो सकता है कि यूरोपीय लोग भारतीयों की संतान हों!

जो लोग ये कहना चाहते हैं कि भारतीय लोग यूरोपियन्स की संतान हैं, वे बारम्बार एक ही बात सिद्ध करना चाहते हैं कि भारत में आर्य बाहर से आये। जबकि पुरासाक्ष्य, अभिलेखीय साक्ष्य और आनुवांशिकीय साक्ष्य बारबार यह पुष्टि कर चुके हैं कि भारतीय वैदिक संस्कृति संसार की सबसे प्राचीन संस्कृतियों में से है। आर्य कहीं बाहर से नहीं आये, अपितु आर्यों की कुछ शाखायें अलग–अलग समय पर भारत से यूरोपीय देशों में गईं। उन प्रमाणों के आलोक में आज यदि आनुवांशिकीय शोध से यह बात सामने आती है कि उत्तर भारत के लोगों और यूरोपीय देशों के आनुवांशिकी गुण साम्य रखते हैं तो उसका अर्थ केवल यही निकाला जा सकता है कि आज से हजारों साल पूर्व अर्थात् वैदिक संस्कृति के विकसित होने से भी पूर्व, भारत में रहने वाले कुछ लोग यूरोप के अत्यंत ठण्डे देशों में चले गये।

इस घटना के हजारों साल बाद भी यूरोप के निवासी आदिम अवस्था में रहे। वे अत्यंत हिंस्रक, जंगली, पिछड़े हुए और मानव भक्षी थे, जबकि भारत में अति उन्नत वैदिक संस्कृति विकसित हो चुकी थी जिसमें चींटी जैसे लघुत्तम प्राणी तक को मारना पाप मानने जैसे उत्कृष्ट चिंतन की अवधारणा सामने आ चुकी थी। भारतीय संस्कृति में वेदों को समस्त सत्य विद्याओं की पुस्तक कहा जाता है किंतु जब ईसा की सत्रहवीं–अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय जातियों का भारत के शासन पर अधिकार हो गया तब, उन्होंने यह कह कर अपनी भड़ास निकाली कि वेद गड़रियों के गीत हैं। उन्होंने ही सबसे पहले यह हल्ला मचाना आरंभ किया कि भारत में आर्य भारत में बाहर से आये।

वस्तुत: वे ऐसा कहकर यह बताना चाहते थे कि जब आर्य बाहर से आकर भारत में अपना आधिपत्य जमा सकते हैं तो अंग्रेज बाहर से आकर इस देश के शासक क्यों नहीं हो सकते! अब वही लोग यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि उत्तर भारतीय लोग यूरोपीय जाति की संतान हैं।

Tuesday, December 29, 2009

वह लड़की जैकेट क्यों उतारती है ?

जोधपुर ने पूरे देश को नया संदेश दिया है वह बधाई का पात्र है। जिस राष्ट्रीय संगठन के नेतृत्व में देश ने आजादी की लड़ाई लड़ी, उस संगठन के 125 वें स्थापना दिवस पर आयोजित समारोह में एक नृत्यांगना ने नृत्य करते-करते अपनी जैकेट उतारी ही थी कि वयोवृद्ध और अनुभवी नेताओं ने उस गीत और नृत्य को बंद करवा दिया और नृत्यांगना को मंच से नीचे उतार दिया। ऐसा देश में पहली बार हुआ है और सचमुच उल्लेखनीय हुआ है।
ये भारत की संस्कृति नहीं है कि सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे भौण्डे नृत्य हो, किसी समय समाज का हिस्सा रहे नौटंकी घरों, कोठों और खेल-तमाशों में ऐसी बातें होती रही होंगी किन्तु आजाद भारत में सामाजिक सरोकारों वाले ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में नृत्यांगनाओं का क्या काम? विदेशों में कुछ ऐसे टीवी चैनल हैं जिनमें कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली एंकर अथवा समाचार वाचिका कार्यक्रम अथवा समाचार वाचन के दौरान अपने शरीर के सारे कपड़े उतार फैंकती है। ऐसा वह अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए करती है। भारत में भी आज टीआरपी बढ़ाने के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है।
सार्वजनिक कार्यक्रमों में क्रिकेट के खिलाड़ियों को बुलाने, फिल्मी अभिनेताओं को बुलाकर उनसे सिनेमाई संवाद बुलवाने तथा भौण्डे नृत्य आयोजित करवाने के पीछे आयोजकों में अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाने अर्थात अधिक भीड़ खींचने की भावना निहित रहती है। लगे हाथों नृत्यांगना भी अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए नृत्य के दौरान जैकेट अतार देने जैसी हरकतें करती है। आजादी के बाद बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से इस तरह की अपसंस्कृति का चलन आरंभ हुआ जो बढ़ता हुआ पूरे देश में कैंसर की तरह फैल गया। दक्षिण भारत आज इस मामले में सबसे आगे बढ़ गया है। जोधपुर ने इस कैंसर को उखाड़ फैंकने का रास्ता दिखाया है। आशा की जानी चाहिए कि देश के दूसरे नगर भी जोधपुर का अनुसरण करेंगे।
कार्यक्रम आयोजक तो अपनी ओर अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढाने के लिए रामलीला जैसे धार्मिक आयोजन में क्रिकेट खिलाड़ी हरभजनसिंह को रावण का मुखौटा पहना कर सीता मैया का अभिनय कर रही नटी के साथ भौंडा और अश्लील नृत्य करवा चुके हैं। हरभजनसिंह को तो केवल पैसे से मतलब है, पूरा देश और उसकी भावनाएं जाएं भाड़ में। मेरा अभिमत है कि और चाहे जिस किसी की पैसे की भूख मिट जाए क्रिकेट के खिलाड़ियां की पैसे की भूख कभी नहीं मिटती।
देखा जाए तो नृत्य के दौरान जैकेट उतारने के लिए केवल नृत्यांगना दोषी नहीं है। हमें अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि आखिर नृत्यांगना नृत्य के दौरान जैकेट क्यों उतारती है? उसके लिए जिम्मेदार कौन है? नृत्यांगना अथवा हम? मैं समझता हूं कि नृत्यांगना तो नाच-गाकर अपना पेट भरती है। उसका क्या दोष, वह तो वही करेगी जिससे दर्शक प्रसन्न हो, उसे अधिक पैसे मिले और उसका रोजगार चलता रहे। दोष तो सभ्य और सुसंस्कृत माने कहलाने वाल हम लोगों का है जो उस नृत्यांगना को ऐसा भौण्डा प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, उसे ऐसा रोजगार अपनाने के लिए अधिक पैसे देते हैं। हमें जोधपुर की जनता को बधाई देनी चाहिए जो टीआरपी और भौण्डे मनोरंजन के मोहजाल से बचकर जैकेट उतारने वाली लड़की को मंच से नीचे उतार देती है।

Friday, December 4, 2009

वह रसोई में पेशाब करेगी

अभी मेरे उस आलेख की स्याही सूखी भी नहीं है जिसमें मैंने लिखा था कि पति-पत्नी में से कोई एक घर में रहे। इधर देश के एक बड़े शहर से यह खबर आई है कि खाना बनाने वाली एक नौकरानी पर रसद सामग्री की चोरी करने का संदेह होने पर एक गृह-स्वामिनी ने अपने रसोईघर में एक गुप्त कैमरा लगाया और आठ दिनों तक उसकी हरकतों की रिकॉर्डिंग की। जब इस कैमरे की रिकॉर्डिंग देखी गई तो सबकी आंखें शर्म और घृणा से भर गर्इं। यह नौकरानी खाना बनाने के दौरान न केवल चावल, घी, चीनी तथा बना हुआ खाना खाती रहती थी अपितु वह जिस कपड़े से अपनी बहती हुई नाक साफ करती थी और पसीना पौंछती थी, उसी कपड़े में रोटियां लपेट कर टिफन में रखती थी। जिस पानी में वह गंदे हाथ धोती थी, उसी पानी में सब्जियां बनाती थी। इस रिकॉर्डिंग के घृणास्पद और शर्मनाक अंश वे थे जिनमें नौकरानी खाना बनाते हुए, वहीं खड़ी होकर पेशाब भी करती थी। पता नहीं कब से उस घर के लोग उसी किचन में बना हुआ खाना खा रहे थे जिसे उनकी नौकरानी ने पेशाब करने के दौरान बनाया था। आजाद भारत, समृद्ध परिवार और आधुनिक संस्कृति का यह कैसा वीभत्स दृश्य है! हो भी क्यों नहीं, हमें तो स्लमडॉग मिलेनियर को देखकर जय हो! गाने से फुर्सत ही कहाँ है! क्रिकेट के मैच में भारतीय खिलाड़ियों को जीतते हुए देखकर धरती को हिला देने वाले पटाखे फोड़ने से ही भला कहाँ फुर्सत है। राखी सावंत का अधनंगा और बेशर्म नाच देखकर पुलकित होने वाले हम भारतीय प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा इस बात पर खर्च करते हैं कि बिग बॉस में राजू श्रीवास्तव औरतों के कपड़े पहन कर क्या भौण्डी हरकतें कर रहा है! मेरा दावा है कि यदि गृह स्वामिनी ने अपने टीवी को देखना छोड़कर अपनी रसोई को देखा होता तो वह नौकरानी किचन में पेशाब कतई नहीं कर सकती थी। क्रिकेट, टी. वी. के कार्यक्रम और नित्य होने वाले विवाह समारोहों में एकत्रित होने वाले हजारों लोगों की बदहवास भीड़ में खोकर हम स्वयं को आधुनिक समाज का हिस्सा समझते हैं, वस्तुत: यह बर्बादी की तरफ धकेले जाते समाज का चेहरा है न कि आधुनिक समाज का। बर्बादी की तरफ धकेला जाता हुआ भारतीय समाज बाजारवाद की हवस का शिकार हुआ है। यह हवस कभी पूरी नहीं होने वाली। जो आज लखपति है उसे करोड़पति और करोड़पति को अरबपति बनने की हवस है। इसलिये धोनी का क्रिकेट चलेगा, राखी सावंत का स्वयंवर चलेगा और अमिताभ बच्चन का बिग बॉस चलेगा। इन्हें चलाने के लिये बाजार विज्ञापन देगा, जिन्हें देखकर आप और हम जरूरत और बिना जरूरत का सामान खरीदेंगे। इस सामान को खरीदने के लिये अनाप-शनाप पैसे चाहियेंगे। पैसों के लिये आदमी और औरत दोनों कमाने के लिये घर से निकलेंगे और पीछे से नौकरानी किचन में पेशाब करेगी। जय हो!