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Wednesday, March 31, 2010

क्या अंतर है दो घंटे और दो साल की रिलेशनशिप में !


लिव इन रिलेशनशिप वाला फण्डा अपन की समझ में नहीं आया। वैसे भी अंग्रेजी नाम वाली चीजें आवश्यक तो नहीं कि भारतीयों को समझ में आयें और उन्हें अनुकूल भी जान पड़ें। लिव इन रिलेशनशिप का अर्थ है बिना विवाह किये स्त्री–पुरुष एक साथ रहें। एक–दो दिन, या दो चार साल, या दस बीस साल या जीवन भर। इस दौरान वे कभी भी एक दूसरे को टाटा या गुड बाय कहकर किसी और के साथ लिव इन रिलेशनशिप आरंभ कर सकते हैं। इस दौरान उन्हें संतान भी हो सकती है। अर्थात् विवाह किये बिना वह सब कुछ हो सकता है जो अब तक विवाह करने के बाद होता आया है।

यदि कोई स्त्री–पुरुष दो घण्टे की लिव इन रिलेशनशिप में रहें। उसके बाद अलग हो जायें। फिर वे दोनों किसी अन्य स्त्री पुरुष के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहें। क्योंकि उन पर पाबंदी तो है नहीं कि कम से कम कितनी अवधि की रिलेशनशिप में रहना आवश्यक है और अधिक से अधिक कितने लोगों के साथ रिलेशनशिप में रहा जा सकता है। दो घण्टे की लिव इन रिलेशनशिप में यदि स्त्री–पुरुष शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा क्योंकि लिव इन रिलेशनशिप को कानून ने स्वीकार कर लिया है। यदि वे स्त्री पुरुष इस तरह की दो–दो घण्टे वाली रिलेशनशिप में कई लोगों के साथ रहें तो उन स्त्री–पुरुषों और वेश्यावृत्ति करने वालों में क्या अंतर है, यह मेरी समझ में नहीं आया। एक तरफ तो देश में वेश्यावृत्ति अपराध है और दूसरी तरफ बिना विवाह किये शारीरिक सम्बन्ध बनाने की छूट है। तो क्या इसका यह अर्थ समझा जाये कि जो काम थोड़ी अवधि के लिये किया जाये तो वेश्यावृत्ति माना जाये और यदि वही काम लम्बी अवधि के लिये किया जाये तो उसे पवित्र कर्म माना जाये!

थोड़ा और आगे चलते हैं। आज भारत में विवाहिता स्त्रियों को उस स्थिति में अपने पति से भरण–पोषण का व्यय प्राप्त करने का अधिकार है जब पति अपनी पत्नी को बिना उसके किसी अपराध के त्याग दे। या एक विवाहिता स्त्री को छोड़कर किसी दूसरी औरत को अपना ले। या अपनी पत्नी पर अत्याचार करके उसका जीना दूभर कर दे। किंतु लिव इन रिलेशनशिप में स्त्री को अपने पुरुष पार्टनर के द्वारा त्यागे जाने पर उस पार्टनर से भरण पोषण पाने का अधिकार नहीं होगा। अर्थात् जब उस पुरुष पार्टनर का मन चाहेगा वह मुंह उठाकर किसी दूसरी स्त्री के साथ लिव इन रिलेशनशिप के लिये रवाना हो जायेगा। टाटा गुडबाय कहने की भी आवश्यकता नहीं होगी। अब उस स्त्री के हाथ में कुछ भी नहीं होगा, न पार्टनर, न जीवन यापन के लिये पैसा, न रूप सम्पदा की वह पिटारी जिसके बल पर उसने लिव इन रिलेशनशिप की शुरुआत की थी। उसके पास होगी उम्र की लम्बी ढलान और छोड़ी हुई स्त्री का ठप्पा।

लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली औरत यदि स्वयं कमाती हो तो उसे अपने भोरण पोषण के लिये किसी का मुंह देखने की आवश्यकता नहीं होगी किंतु तब भी इतना तो अवश्य होगा कि उम्र के उस ढलान पर कोई भी पुरुष उसके साथ रहने के लिये उत्सुक नहीं होगा। अब उस स्त्री को अपना शेष जीवन अकेले रहकर काटना होगा। क्योंकि अधिक संभावनायें इसी बात की होंगी कि लिव इन रिलेशनशिप में बच्चे नहीं होंगे और एक बार किसी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह चुकी स्त्री से विवाह करने को भी शायद ही कोई पुरुष तैयार होगा। अर्थात् हर तरह से औरत घाटे में रहेगी। संभवत: इसी को कहते हैं नारी मुक्ति आंदोलनों का चरम! जय हो!

उदास है भारत माता !


हम भारतीय लोग धरती, गौ, गंगा, गीता, गायत्री और पराई स्त्री को माता मानते हैं। इन सब माताओं से बढ़कर यदि कोई और भी है जिसे हम माता का सम्मान देते हैं तो वह है भारत माता। भारत माता पर उसकी सारी संतानें बलिदान होने का स्वप्न देखती हैं फिर भी यह कैसी विडम्बना है कि हमारी समस्त माताओं की तरह भारत माता भी चारों ओर संकटों से घिरी हुई है और वह बुरी तरह उदास है। उसकी उदासी का कोई एक कारण नहीं है। भारत में एक तिहाई लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं अर्थात् लगभग 40 करोड़ लोगों को 2100 कैलारी ऊर्जा अर्थात् दो जून की रोटी आसानी से नसीब नहीं होती फिर भी भारत माता के कुछ ताकतवर बेटों ने 25 लाख करोड़ रुपये स्विस बैंकों में ले जाकर छिपा दिये हैं। एक माता कैसे सुखी हो सकती है जब उसके कुछ बेटे तो भूखे मरें और कुछ बेटे अय्याशी भरी जिंदगी बिताने के लिये देश की सम्पत्ति को चुराकर दूसरे देशों में छिपा आयें !

एक अनुमान के अनुसार पाकिस्तानी घुसपैठियों ने 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये के नकली नोट लाकर भारत में खपा दिये हैं। इस कारण हर भारतीय हर समय आशंकित रहता है कि उसकी जेब में पड़े हुए नोट नकली न हों, कहीं कभी पुलिस उसे नकली नोट रखने या चलाने के अपराध में गिरफ्तार न कर ले! सोचिये जिस माता के बेटों को हर समय अपने धन की सुरक्षा करने की चिंता रहती हो, वह माता कैसे सुखी रह सकती है!

भारत के लोग संत–महात्माओं और बाबाओं के प्रवचन सुनने के लिये लालायित रहते हैं। उनके प्रवचनों के माध्यम से अपने लिये मोक्ष का मार्ग खोजते हैं। इसलिये टी वी चैनलों पर इन बाबाओं के प्रवचनों में उमड़ने वाली विशाल भीड़ दिखाई देती है। इतने सारे लोगों को एक साथ एकत्रित देखकर आंखें हैरानी से फटी रह जाती हैं। इन्हें देखकर लगता है कि जब इतने सारे लोग धर्म चर्चा में भाग लेंगे तो देश में सुख–शांति स्वत: ही व्याप्त हो जायेगी किंतु हैरानी होती है यह देखकर कि संत–महात्माओं के भक्त कहलाने वाले ये लोग अचानक ही वहशी हो उठते हैं और चलती हुई ट्रेनों को आधी रात में रोककर उनमें आग लगा देते हैं। स्टेशनों और जंगलों में पड़े बच्चे भूख से बिलबिलाते हैं। यह कैसी भक्ति? यह कैसा उन्माद? भला ऐसे हिंसक बच्चों को देखकर कौन माता उदास नहीं होगी?

भारत माता की एक उदासी हरियाणा को लेकर भी है। हरियाणा में शिक्षा विभाग ने महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण दिया। कुछ दिन बाद उन महिलाओं के बारे में एक सर्वेक्षण किया गया। पता लगा कि उन समस्त महिला शिक्षकों ने अपने ही विभाग में नियुक्त पुरुष शिक्षकों अथवा अन्य सरकारी कर्मचारियों से विवाह कर लिये। इनमें से एक भी महिला ऐसी नहीं थी जिसने किसी बेरोजगार युवक से विवाह किया हो। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने जितने लोगों को नौकरी दी उनमें से 60 प्रतिशत नौकरियां केवल 30 प्रतिशत घरों में ही चूल्हा जला रही हैं। जिन 30 प्रतिशत घरों में और चूल्हे जल सकते थे उन घरों में किसी को रोजगार नहीं पहुंचा और वहां दो वक्त का चूल्हा भी नहीं जल रहा। अब भला भारत माता क्यों उदास न हो!

Monday, March 29, 2010

युवाओं को संवदेना विहीन बनाती है रैगिंग!

रैगिंग पाश्चात्य जीवन शैली की कुछ अत्यंत बुरी बुराइयों में से है, जिसे भारतीयों ने कुछ अन्य बुराईयों की तरह जबर्दस्ती ओढ़ लिया है। यह अपने आप में इतनी बुरी है कि हम विगत कई वर्षों से प्रयास करने के उपरांत भी इसे महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों से समाप्त नहीं कर पाये हैं। इसका क्या कारण है! रैगिंग के जारी रहने का सबसे बड़ा कारण स्वयं रैगिंग ही है। जो युवा एक बार रैगिंग का शिकार हो जाते हैं, उनके मन से मानवीय संवेदनाएं नष्ट हो जाती हैं और वे अपनी रैगिंग का बदला दूसरे युवाओं से लेने का हर संभव प्रयास करते हैं। इसी मानसिकता के चलते रैगिंग को समाप्त नहीं किया जा सका है।

भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने देश के समस्त शिक्षण संस्थाओं को हिदायत दी है कि वे अपनी संस्थाओं को रैगिंग से मुक्त रखें। इन आदेशों के परिप्रेक्ष्य में अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में रैगिंग के विरुध्द कुछ कदम भी उठाये हैं किंतु रैगिंग के शिकार हो चुके युवाओं के क्रूर व्यवहार के कारण रैगिंग बदस्तूर जारी है। यह बुराई तकनीकी, व्यावसायिक एवं चिकित्सा शिक्षण संस्थाओं में कैंसर का रूप ले चुकी है।

विगत वर्ष भी देश के अनेक शहरों में स्थित शिक्षण संस्थाओं में नवीन प्रवेश लेने वाले बच्चों को रैगिंग की काली छाया ने डस लिया। कई बच्चे हमेशा के लिये शिक्षण संस्था छोड़कर चले गये तो कुछ बच्चों को प्राणों से भी हाथ धोने पड़े। जो छात्र पिछली साल रैगिंग का शिकार हुए थे अब वही छात्र अपनी रैगिंग का बदला लेने के लिये नये छात्रों का बड़ी क्रूर मानसिकता के साथ स्वागत करने को उत्सुक दिखायी देते हैं।

रैगिंग के दौरान बच्चों के साथ गाली-गलौच तथा मारपीट की जाती है जिसके साथ तर्क दिया जाता है कि इससे बच्चे बोल्ड बनेंगे और उनका दब्बूपन जाता रहेगा। यह तर्क सभ्य समाज में किसी भी समझदार व्यक्ति के गले उतरने वाला नहीं है। गाली, लात और घूंसे खाकर आदमी बोल्ड कैसे बनेगा? ऐसे व्यक्ति के भीतर तो एक ऐसी सहमी हुई कुण्ठित पसर्नलटी जन्म लेगी जो अपने से कमजोर लोगों पर हाथ उठाकर अपने अहम को संतुष्ट करना चाहेगी।

अक्सर हम देखते हैं कि बात केवल गाली-गलौच या लात-घूंसों तक सीमित नहीं रहती। लड़कों के कपड़े उतरवाना, उन्हें हॉस्टल की बालकनी से रस्सी बांधकर लटका देना, धारा प्रवाह गंदी गालियां बोलने के लिये विवश करना, मुर्गे बनाना, घण्टों धूप में खड़े रखना, सिगरेट पिलाना, हीटर पर बैठने के लिये मजबूर करना जैसी क्रूर हरकतें होती हैं। आजकल तो इस तरह की शारीरिक प्रताड़ना पुलिस थानों में भी नहीं हो सकती जैसी कि शिक्षण संस्थाओं में हो रही है।

तर्क यह भी दिया जाता है कि यदि रैगिंग नहीं होगी तो जूनियर बच्चे अपने सीनियर्स में घुल-मिल नहीं पायेंगे। गाली-गलौच और लात घूसों के बल पर दूसरे लोगों को अपने समूह में शामिल करना एक विचित्र तर्क जैसा लगता है। यह तो आतंक के बल पर दोस्ती गांठने जैसा है। घुलने मिलने के लिये शालीन व्यवहार, मधुर वाणी और परस्पर सहयोग जैसे गुण आवश्यक होते हैं न कि दर्ुव्यवहार।

रैगिंग के शिकार युवा केवल कॉलेज कैम्पस में अपने से जूनियर छात्रों की रैगिंग लेकर ही संतुष्ट नहीं होते। उनमें से बहुत से युवा हमेशा के लिये दूसरों के प्रति संवदेना विहीन हो जाते हैं। वे सड़क, कार्यालय, परिवार एवं रिश्तेदारी में भी दूसरों को पीड़ित करने में सुख का आनंद अनुभव करते हैं।

यदि हम अपने बच्चों को अच्छा नागरिक, अच्छा कार्मिक, अच्छा पिता, अच्छा दोस्त और अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं तो हमें घर से ही शुरुआत करनी होगी और बच्चों को रैगिंग से दूर रहने के लिये प्रेरित करना होगा। जिन बच्चों की रैगिंग हो चुकी है, उन्हें बारबार समझाना होगा कि जो आपके साथ हुआ, उसे बुरे स्वप्न की तरह भूल जाओ तथा स्वयं किसी की रैगिंग मत लो।

Wednesday, March 24, 2010

हमारी समस्त माताएं संकट में हैं !

जन्मदात्री माता की तरह धरती, गौ, गंगा, गीता, गायत्री और पराई स्त्री को भी हम माता मानते हैं। यह विशाल धरती प्राणी मात्र की माता है जो हमारे मल–मूत्र और गंदगी को सहन करके, जल और अन्न से हमारा शरीर बनाती है और उसे जीवित रखती है। गौ हमें अपने दूध से पुष्ट करती है। उसके बछड़े हमारे जीवन का अधिकांश बोझ अपने कंधों पर रख लेते हैं। गंगा हमारे तन और मन को शुद्ध करती है, हमारे पाप धोती है और हमारे पूर्वजों को गति प्रदान करती है। गीता हमें जीवन में कर्मयज्ञ की ओर अग्रसर करती है। गायत्री, मंत्रों के रूप में प्रकट होकर हमें सुखी बनाती है। इन सबके साथ–साथ हमने पराई स्त्री को भी माता का सम्मान दे रखा है ताकि हमारी अपनी माता को हर स्थान पर सम्मान मिले।

इन दिनों एक बात बार–बार अनुभव में आती है कि ये समस्त माताएं संकट में हैं। जितनी तरह की माताएं हैं उतनी ही तरह के संकट हैं। जिस तरह देश में बड़े–बड़े सैक्स रैकेट्स पकड़े गये हैं, उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय माताएं कितने बड़े खतरे में हैं। बहुत सी माताओं को नारी मुक्ति के नाम पर यह कहकर भड़काया जा रहा है कि वे पुरुष को अपना पुत्र, पिता, भाई या पति न समझकर अपना प्रतिद्वंद्वी समझें। उनकी इस प्रवृत्ति के चलते भारतीय माताएं सशक्त होने के स्थान पर और अधिक कमजोर हो रही हैं।

धरती माता पर कई ओर से संकट गहरा रहा है। वायुमण्डल का तापक्रम बढ़ रहा है। ओजोन परत में छेद हो गये हैं। ग्रीन हाउस प्रभाव वाली गैसों के कारण धरती जलता हुआ अंगारा बनती जा रही है। गंगा माता पर आये संकट से कौन अपरिचित है! वह तेजी से लुप्त हो रही है। उसे जल देने वाले ग्लेशियर सूख रहे हैं और उसकी क्षीण होती जा रही धाराओं पर विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाएं खड़ी की जा रही हैं। गाय की हालत तो गंगाजी से भी बुरी है। वह शहरों में ही नहीं गांवों में भी दुख पा रही है। भारतीय गौ को अनार्थिक मानकर, उसकी अच्छी से अच्छी नस्लों को समाप्त किया जा रहा है और वर्णसंकर नस्लें पनपाई जा रही हैं।

अब गीता को शायद ही कोई माता मानता है। वह पूजाघरों में लाल कपड़े से ढककर रखी गई श्रद्धेय पुस्तक मात्र बनकर रह गई है। उसे कोई नहीं पढ़ता, कोई जीवन में नहीं उतारता। लोगों के मन में धन एकत्रित करने की जो लालसा विस्तृत हुई है उसे देखकर लगता है कि लोग यह भूल गये हैं कि जीव को तो बार–बार धरती पर आते ही रहना है। केवल यही जन्म तो हमें नहीं जीना? तब सारा प्रपंच केवल इसी जीवन को सुखी बनाने के लिये क्यों? क्या हो जायेगा यदि इस जन्म में हमने लाखों करोड़ों रुपये जोड़ लिये तो! यह सब तो इस जीवन के समाप्त होने के साथ ही फिर से पराया हो जायेगा। अगला जन्म जाने किस घर में हो! वहां फिर से नया धन कमाना पड़ेगा। यह चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक हम अपने आप को सब तरह की वासनाओं से मुक्त करके परमधाम को प्राप्त नहीं कर लेंगे। गायत्री का अर्थ है जीवन में जो कुछ भी ओजस्वी है, उस सबको नमस्कार किंतु भारतीय समाज अपना तेज खोता जा रहा है। भय, लालच हिंसा और नंगेपन का अंधकार चारों ओर से बढ़ा चला आ रहा है किंतु इतना होने पर भी इन संकटों से बचने के मार्ग बंद नहीं हुए हैं। अभी हमारे पास कुछ समय है कि हम अपनी माताओं को संकटों से उबारकर अपनी संस्कृति की रक्षा करें।

आप सोचेंगे, एक माता तो रह ही गई किंतु भारत माता के कष्टों की बात फिर कभी।

Monday, March 22, 2010

पहले तो निवास करती थी लक्ष्मी, अब बसती है बदबू !


भारतीय संस्कृति में दो ऐसी बातें कही गई हैं जो भारतीय संस्कृति की विलक्षणता को उसकी समग्रता में प्रकट करती हैं। पहली तो यह कि महाराज परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में निवास करने के आदेश दिये और दूसरी यह कि देवताओं ने लक्ष्मी से गाय के गोबर में निवास करने का वरदान मांगा। ये दोनों बातें संकेत करती हैं कि मानव सभ्यता तभी फलेगी–फूलेगी जब लोग स्वर्ण अर्थात् धन इकट्ठा करने के पीछे नहीं दौड़ेंगे अपितु श्रम को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर गाय की सहायता से समृद्धि प्राप्त करने का प्रयास करेंगे।

गोबर में लक्ष्मी निवास करने की मान्यता का गहरा अर्थ है। गाय के गोबर से फसलों की वृद्धि के लिये खाद, घरों को लीपने के लिये शुद्ध सात्विक परिमार्जक और चूल्हे में जलाने के लिये ईंधन प्राप्त होता है। गोबर हमें तभी प्राप्त हो सकता है, जब गाय हमारे पास होगी। और जब गाय हमारे पास होगी तो उसके दूध से मानव सभ्यता पुष्ट होगी तथा उसके बछड़े, बैल बनकर खेत में हल जोतेंगे और बैलगाडि़यों में जुतकर आदमी का बोझा उठाने में हाथ बंटायेंगे। इतना ही नहीं, गायों के मरने के बाद उनके चमड़े से जूते बनेंगे जो मानव के पैरों की रक्षा करेंगे।


कहा भी गया है कि यदि भारतीय गायें केवल गोबर के लिये पाली जायें तो भी वे महंगा सौदा नहीं हैं। कुछ लोगों की तो यहां तक मान्यता रही है कि गायों से कुछ पाने के लिये उन्हें न पाला जाये अपितु उनकी सेवा करने के उद्देश्य से उन्हें पाला जाये। वस्तुत: गाय को माता मानने, गौसेवा करने और गौरक्षा करते हुए प्राण उत्सर्ग करने की भावना रखने का एक ही अर्थ है और वह है मानव सभ्यता को श्रम आधारित बनाये रखना। गाय के गोबर को पंचगव्य माना जाता था। मुख शुद्धि और धार्मिक संस्कारों में गाय का गोबर अनिवार्य रूप से प्रयुक्त होता था। गाय के गोबर की जो महिमा मैंने बताने का प्रयास किया है वह तब की बात है जब गायों को खाने के लिये अच्छी वनस्पति मिलती थी और गायों से पीले–सुनहरे रंग का गोबर मिलता था। जंगल में गिरकर सूखा हुआ गोबर अरिणये अर्थात् अरण्य से प्राप्त कहलाता था। उसे पवित्र मानकर हुक्के में रखा जाता था। यज्ञ करने के लिये भी गाय के गोबर को पवित्र समिधा के रूप में देखा जाता था।


अब तो गायें शहर में रहकर कचरा, कागज, पॉलीथीन की थैलियां यहाँ तक कि मैला खा रही हैं जिसके कारण उनका गोबर काला और गहरे हरे रंग का होता है। इस गोबर में से बदबू आती है और वह पानी की तरह बहता है। आज आदमी ने गायों को इस योग्य छोड़ा ही नहीं है कि वे अच्छा गोबर दे सकें किंतु आज के वैज्ञानिक युग में पैसे के पीछे अंधे होकर भाग रहे आदमी को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि गोबर की जितनी आवश्यकता कल थी, उससे अधिक आवश्यकता आज है। वैज्ञानिकों का कहना है कि परमाणु विकीरण से केवल गोबर ही प्राणियों की रक्षा कर सकता है। ईश्वर न करे किसी दिन परमाणु बमों का जखीरा मानव सभ्यता के विरुद्ध प्रयुक्त हो या कोई परमाणु रियेक्टर फट जाये किंतु दुर्भाग्य से यदि कभी भी ऐसा हुआ तो केवल वही लोग स्वयं को विकीरण से बचा सकेंगे जो अपने शरीर पर गाय का गोबर पोत लेंगे किंतु उस दिन हर आदमी के घर में स्वर्ण अर्थात् कलियुग तो होगा किंतु गोबर अर्थात् लक्ष्मी ढूंढे से भी नहीं मिलेगी।

ऐसे तो हम लड़ाई हार जायेंगे

यदि धन खो जाये तो समझिये कि कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खो जाये तो समझिये कि कुछ खो गया किंतु चरित्र खो जाये तो समझिये कि सर्वस्व खो गया। इस समय भारतीय समाज के भीतर इस कहावत से ठीक उलटा काम हो रहा है। लोग अपने स्वास्थ्य और चरित्र को बेचकर पैसा बटोरने में लगे हैं। विगत कुछ दिनों में हुए सैक्स रैकेट्स के खुलासे इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अपना स्वास्थ्य और चरित्र दोनों खो रहा है। एयर होस्टेस, महंगे कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां और हाई–फाई कहलाने वाले घरों की विवाहिता औरतें सैक्स रैकेट्स में सम्मिलित होकर पैसा कमा रही हैं। अभी तो चारित्रिक पतन का यह कैंसर कुछ स्थानों पर दिखाई दिया है किंतु यदि यह कैंसर भारतीय समाज में और अधिक फैल गया तो भारत अपना सर्वस्व गंवा देगा। हमारा आजादी लेना व्यर्थ चला जायेगा। हमारे सद्ग्रंथ व्यर्थ हो जायेंगे, भारत की धरती पर गंगा–यमुना का होना निरर्थक हो जायेगा, हमारी संस्कृति को पलीता लग जायेगा और हम संसार में एक पतित चरित्र वाले नागरिकों के रूप में जाने जायेंगे। हमारी संस्कृति में चरित्र के महत्व को आंकने के लिये बहुत सी बातें कही गई हैं जिनमें से एक यह भी है कि यदि राजा रामचंद्र रावण से युद्ध हार जाते तो कोई अनर्थ नहीं हो जाता, युद्ध में हार–जीत तो चलती ही रहती है किंतु यदि सीता मैया रावण से हार जातीं तो पूरी वैदिक संस्कृति, आर्य गौरव और सनातन मूल्य परास्त हो जाते। भारतीय स्त्रियों ने अपने शील की रक्षा करने के लिये बड़े–बड़े बलिदान दिये हैं। आज भारतीय महिलाओं से कोई बलिदान नहीं मांग रहा। उसकी आवश्यकता भी नहीं है किंतु हाई–फाई कहलाने वाली सोसाइटी की शिक्षित महिलाओं में इतना तेज तो बचना ही चाहिये कि वे पैसा कमाने के लिये अपने शील का सौदा करके वेश्यावृत्ति की तरफ न जायें !यह सही है कि समाज के चरित्र को बचाने का सारा ठेका महिलाओं ने नहीं ले रखा, पुरुष भी उसके लिये पूरे जिम्मेदार हैं किंतु आज महिला मुक्ति के नाम पर कुछ संस्थाएं संगठित रूप से इस दिशा में काम कर रही हैं कि पुरुष महिलाओं को सुरक्षा एवं संरक्षण न दें। भारतीय संस्कृति में समाज की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि महिला विवाह से पहले पिता के संरक्षण में, पिता के न रहने पर भाई के संरक्षण में, विवाह हो जाने पर पति के संरक्षण में और विधवा होने पर पुत्र के संरक्षण में रहती आई है किंतु तथाकथित नारी मुक्ति संगठन इस व्यवस्था को पुरुष प्रधान व्यवस्था बताकर महिलाओं को पुरुषों से तथाकथित तौर पर मुक्त करवाने में लगी हुई हैं। ऐसी भ्रमित औरतें जो अपने परिवार के प्रति अपने दायित्व बोध को त्यागकर आधुनिक बनने का भौण्डा प्रयास करती हैं, बड़ी सरलता से सैक्स रैकेटों में फंस जाती हैं। अपने पिता, भाई, पति और पुत्र के संरक्षण में रहना अच्छा है कि समाज और धर्म के ठेकेदारों के चंगुल में फंसकर वेश्यावृत्ति के गहरे गड्ढे में जा धंसना अच्छा है?जब अशोक वाटिका में सीताजी को अपने परिवार का संरक्षण उपलब्ध नहीं था तब वे अपने हृदय में श्रीराम का ध्यान रखकर, तिनके की आड़ लेकर रावण के दुष्टता और धूर्तता भरे प्रस्तावों का प्रतिकार करती थीं–
तृन धरि ओट कहति बैदेही, सुमिरि अवधपति राम सनेही।
यह उदाहरण बताता है कि स्त्री के शील तथा समाज के चरित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब स्त्रियां अपने पारिवारिक दायित्वों से ध्यान न हटायें तथा पराये पुरुष से संवाद करते समय मर्यादा बनाये रखें। अन्यथा भारतीय संस्कृति, बुराई से अपनी रक्षा नहीं कर पायेगी और अपनी लड़ाई हार जायेगी।

Sunday, March 21, 2010

जिम्मेदारियां निभाने वाली आवारा हैं वे !


वह लावारिस नहीं है किंतु सारे दिन आवाराओं की तरह रहती है। वह शहर की किसी भी भीड़ भरी सड़क अथवा चौराहे पर खड़ी हुई दिखाई दे जाती है, कभी अकेली तो कभी झुण्ड में। सर्दी, गर्मी और बरसात में भले ही ट्रैफिक का सिपाही थोड़ा हट कर खड़ा हो जाये किंतु वह मानव सभ्यता की प्रहरी की तरह कड़कड़ाती ठण्ड, चिलचिलाती धूप और घनघोर बरसात में भी अपने स्थान से इंच भर नहीं हिलती। जब से उसने मानवों को अपना पुत्र माना, तब से वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती आ रही है। आदमी ने उसके दूध को अमृत मानकर पिया और उसके पुत्रों को खेतों और बैलगाड़ियों में जोता। एक समय था जब स्वयं ईश्वर उसका प्यार पाने के लिये मानव बनकर आया और गोपाल कहलाया किंतु जैसे ही मानव ने गांव छोड़कर शहरों में रहना आरंभ किया, हल के बदले ट्रैक्टर अपनाया और बैलगाड़ी के बदले कार चलाने लगा, तब से मानव ने अपनी इस निरीह माता के सुख-दुख से नाता ही तोड़ लिया। अब तो बस वह दूध देने की मशीन भर बनकर रह गई हैं।
आप सही समझे हैं, मैं शहरों में रहने वाली गौओं की ही बात कर रहा हूँ। शहर की हवा ही ऐसी है। जिस तरह शहरों में रहने वाले अधिकांश लोग अपनी माताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करते, वे गौमाता के प्रति भी वैसे ही रूखे और निर्दयी बन गये हैं। यही कारण है कि शहरों में रहने वाली गायों के कंधों पर गांवों, ढाणियों और खेतों में रहने वाली गायों की अपेक्षा तीन गुनी जिम्मेदारियों का भार है। उन्हें सुबह-सायं दूध तो देना ही है, बछड़े-बछड़ियां भी पैदा करने ही हैं किंतु साथ ही अपने भोजन का प्रबंध भी उन्हें स्वयं अपने बल बूते पर करना है। नगर के पगलाये हुए ट्रैफिक के बीच खड़े रहकर अपने जीवन की रक्षा भी स्वयं ही करनी है।
शहर के हर चौराहे पर भुतहा चेहरे लिये हुए खड़ी हुई इन हजारों गायों को देखकर कौन कह सकता है कि एक दिन भारतीय इस गाय को अपनी माता कहते नहीं अघाते थे! आज भी वे भूले बिसरे गीतों की तरह बच्छ बारस पर उनके बछड़ों की पूजा करते हैं किंतु आज के दौर में मानव सभ्यता की यह माता होटलों से फैंकी गई झूठन पाने के लिये आवार कुत्ताों से प्रतिस्पर्धा कर रही है। वह प्लास्टिक की थैलियों को खाने के लिये कचना बीनने वाले बच्चों से सींग लड़ा रही है। वह शहर के भयंकर गति से भाग रहे ट्रैफिक के बीच सहमी हुई सी खड़ी होकर आदमी से अपने प्राणों की भीख मांग रही है।
कोई है जिसे इन गायों को देखकर पीड़ा होती है? कोई है जो इन गायों के मालिकों को समझा सके कि भाई तुम इन गायों को शहरों से दूर ले जाओ, सुबह शाम इनका दूध दूकर इन्हें आवारा की भांति भटकने के लिये सड़कों पर मत छोड़ो? कोई है जो इन गायों को सड़कों से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर भेजकर शहर की सड़कों पर फैले मौत के भय से अपने बच्चों को मुक्त कर सके?

Thursday, March 4, 2010

दीदी नहीं, बॉस कहो !

वे दोनों एक ही गली में रहती हैं। उन दोनों की उम्र में केवल एक साल का अंतर है। दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानती हैं। पहली लड़की नगर के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज के द्वितीय वर्ष की छात्रा है। दूसरी लड़की ने उसी कॉलेज के पहले वर्ष में प्रवेश लिया है। दोनों लड़कियां साल के पहले दिन कॉलेज बस पकड़ने के लिये एक ही स्टॉप पर आ खड़ी होती हैं। पहले वर्ष की लड़की, दूसरे वर्ष में पढ़ने वाली लड़की का अभिवादन करती है, नमस्ते दीदी। दूसरी लड़की भड़क कर जवाब देती है, दीदी नहीं, बॉस कहो। पहले वर्ष में प्रवेश लेने वाली लड़की हैरान है ! इसे क्या हुआ ? कल तक तो ऐसी कोई बात नहीं थी। आज दोनों एक कॉलेज में आ गईं तो दीदी, बॉस बन गईं ! पहले वर्ष की लड़की ने भी तुनक कर कहा, काहे की बॉस। इसके बाद पूरा साल बीत गया, दोनों लड़कियां अब एक दूसरे से बात नहीं करतीं। यह कहानी किसी एक शहर की किसी एक गली की नहीं है, हिन्दुस्तान की गलियां ऐसी कहानियों से भरी पड़ी हैं। एक समय था जब एक गली, मुहल्ले में रहने वाली लड़कियां बहिनों की तरह बरताव करती थीं। वे एक दूसरे को संरक्षण भी देती थीं किंतु बदले हुए युग धर्म में अब वे बहिनें नहीं रही हैं, बॉस और सबॉर्डिनेट बन गई हैं। वरिष्ठ सहपाठिनें कभी भी बॉस नहीं हुआ करती थीं। पर अब कॉलेजों में यह विचित्र बॉसिज्म आया है। वरिष्ठ छात्र अपने आप को कनिष्ठ छात्रों से बॉस कहलवाकर उनसे आदर प्राप्त करने की भौण्डी चेष्टा करते हैं। यही वह मानसिकता है जो कॉलेजों से रैंगिंग के प्रेत को बाहर नहीं जाने देती। इसी मानसिकता ने देश के कई कॉलेजों में पढ़ रहे भावी इंजीनियरों और डॉक्टरों को हमसे छीन लिया। बॉस कहलवाने और उन पर अपनी दादागिरी थोपने की चेष्टा में कई सीनियर छात्रों ने अपने जूनियर छात्रों को नंगा करके कॉलेजों की बॉलकनी से लटका दिया। फिर उनके शव ही वहां से उतारे गये। हमारे देश की बहुत सी शिक्षण संस्थाओं में छात्र–छात्राओं को परस्पर भैया–बहिन कहलवाने की परम्परा रही है। यहां तक कि शिक्षकों को भी भैयाजी अथवा बहिनजी कहा जाता है। मारवाड़ में तो प्राय: हर विद्यालय में महिला अध्यापक को बहिनजी कहा जाता रहा है। पाश्चात्य देशों में नर्सिंग व्यवसाय आरंभ हुआ, उन्होंने नर्स को अनिवार्यत: सिस्टर कहने की परम्परा विकसित की। जो अपनत्व, परस्पर विश्वास और सुरक्षा का भाव जीजी, दीदी, बहिनजी या सिस्टर कहने से प्रकट होता है, वह अपनत्व बॉस शब्द से कैसे मिल सकता है! फिर भी हमारी नई पीढ़ी दीदी और बहिनजी जैसे शब्दों को बॉस शब्द से प्रतिस्थापित करना चाहती है, इसे एक विडम्बना ही कहा जाना चाहिये। बात जब निकलती है तो दूर तक जाती है। यह बात भी केवल शिक्षण संस्थानों तक जाकर समाप्त नहीं होती। पहले बाजार, रेलवे स्टेशन अथवा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अपरिचित महिलाओं से बात करते समय लोग बहिनजी अथवा बीबीजी कहकर सम्बोधित करते थे किंतु अब उन्हें मैडम कहा जाता है। संभवत: इसी कारण सामाजिक सुरक्षा का चक्र टूटकर बिखर गया है।