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Monday, September 6, 2010

उन्होंने अब भी अपनी मानसिकता नहीं बदली है !

उन्होंने अब भी अपनी मानसिकता नहीं बदली है !
आज से बहुत बरस पहले भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी जगन्नाथपुरी के मंदिर में देव विग्रहों के दर्शनार्थ गईं। मंदिर के पुजारियों ने उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी। पुजारियों के अनुसार केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों को ही मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार था जबकि एक पारसी से विवाह करने के कारण, पुजारियों की दृष्टि में वे हिन्दू नहीं रही थीं, पारसी हो गई थीं। वे देश की प्रधानमंत्री थीं, फिर भी उन्होंने किसी से कोई वाद–विवाद नहीं किया। वे मंदिर के बाहर से शांतिपूर्वक दिल्ली लौट गईं। श्रीमती गांधी ने कभी इस घटना की आलोचना नहीं की, न कहीं इस बात की चर्चा तक की।

कुछ बरसों बाद उनके प्रिय पुत्र संजय गांधी का दुखद निधन हुआ। संजय की अस्थियाँ विसर्जन के लिये प्रयागराज इलाहाबाद ले जाई गईं। गंगाजी में अस्थि विसर्जन के अधिकार एवं अस्थि विसर्जन के बाद मिलने वाली दान–दक्षिणा की राशि को लेकर पण्डों ने झगड़ा किया। एक ओर भारत की प्रधानमंत्री शोक के सागर में गोते लगा रही थीं और दूसरी ओर पण्डे अस्थि विसर्जन की दक्षिणा में बड़ी राशि के लिये लड़ रहे थे! पण्डों का यह आचरण देखकर श्रीमती इंदिरा गांधी क्षुब्ध हो गईं। उन्हें समझ में आ गया कि जो पण्डे भारत की प्रधानमंत्री के पुत्र की अस्थि विसर्जन पर इतना बड़ा वितण्डा खड़ा कर सकते हैं, वे भारत की निरीह, भोलीभाली और धर्मप्राण जनता के साथ कितनी कठोरता करते होंगे! उस दिन तो उन्होंने पण्डों से कुछ नहीं कहा किंतु उन्होंने मन ही मन एक निश्चय किया कि वे भारत की धर्मप्राण जनता को पण्डों के इस झगड़े से बचाने के लिये कुछ करेंगी।


इस घटना के कुछ समय बाद भारत के समस्त तीर्थों पर पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को उनकी इच्छानुसार पूजन, अर्चन, तर्पण और पिण्डदान आदि की पूरी तरह से सैद्धांतिक और व्यवहारिक छूट को सुनिश्चित किया गया। पण्डाें से स्पष्ट कह दिया गया कि यदि जजमान न चाहे तो किसी पण्डे को उसके पास फटकने तक की आवश्यकता नहीं। कोई पण्डा किसी जजमान पर यह जोर नहीं डालेगा कि उसके पूर्वजों का वंशानुगत पण्डा कौनसा है। पूजन, तर्पण के बाद जजमान अपनी श्रद्धा, आस्था और इच्छा के आधार पर ही दान–दक्षिणा दे सकेगा। किसी पण्डे को यह अधिकार नहीं कि वह निश्चित राशि की मांग दान–दक्षिणा या शुल्क के रूप में कर सके।

इन आदेशों की पालना पूरे देश में मजबूत इरादों के साथ की गई जिससे भारत की कोटि–कोटि धर्मप्राण जनता ने राहत की सांस लीं किंतु चार सितम्बर को पुष्कर में जो कुछ हुआ, उसने मुझे इस इतिहास का स्मरण करवा दिया। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधराराजे की उपस्थिति में पुष्कर के पण्डों ने झगड़ा किया कि पुष्करजी में श्रीमती राजे को पूजा करवाने का अधिकार किन पण्डों को है ! इस झगड़े से श्रीमती राजे इतनी क्षुब्ध हुईं कि वे बिना पूजा किये ही लौट गईं। क्या पण्डे इस बात कभी सोचते हैं कि देश की सनातन धर्म व्यवस्था ने धार्मिक तीर्थ, पण्डों की दुकानों के रूप में नहीं खोले हैं अपितु श्रद्धालुओं की आस्था की अभिव्यक्ति के लिये स्थापित किये हैं। पण्डों को चाहिये कि वे पूरे हिन्दू समाज से क्षमा मांगें कि जो कुछ उन्होंने श्रीमती राजे की उपस्थिति में किया, उसे आज के बाद किसी अन्य श्रद्धालु के साथ नहीं दोहरायेंगे।

Wednesday, September 1, 2010

उनके भाग्य में तालिबानियों की सहायता लेना ही लिखा है !

पाकिस्तान में बाढ़ आई। खैबर, पख्तूनिस्तान, सिंध, बलूचिस्तान और पंजाब सहित विशाल क्षेत्र इससे प्रभावित हुआ और पाकिस्तान का पांचवा हिस्सा पानी में डूब गया। अनुमान है कि 2 हजार लोग मरे, 10 लाख घर नष्ट हुए और 2 करोड़ लोग या तो घायल हो गये या घर विहीन हो गये। बाढ़ से कुल 43 बिलियन अमरीकी डॉलर अर्थात् 34,400 खरब पाकिस्तानी रुपये का नुक्सान हुआ जिससे पाकिस्तान की लगभग एक चौथाई इकॉनोमी बर्बाद हो गई। जिस समय यह सब हो रहा था, पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी यूरोप के होटलों में मौज कर रहे थे जिससे नाराज पाकिस्तानियों ने उन पर लंदन में जूता फैंककर मारा। जरदारी के स्थान पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री एस. एम. कुरैशी बाढ़ के विरुद्ध मोर्चा संभाला।
कुरैशी ने पाकिस्तान की बाढ़ को मानवता की सबसे बड़ी त्रासदी बताकर सारे संसार के समक्ष सहायता की गुहार लगाई। उन्होंने ओमान की राजधानी मस्कट पहुंचकर अपनी झोली फैलाई और गल्फ देशों से कहा कि मुसीबत की इस घड़ी में उदार होकर पाकिस्तान की मदद करें। एशियन डिवलपमेंट बैंक, वल्र्ड बैंक एवं यूएनडीपी जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें पहले से ही पाकिस्तान को बाढ़ से निबटने के लिये सहायता उपलब्ध करवा रही थीं। यह तो ज्ञात नहीं कि इस गुहार के बाद गल्फ देशों ने पाकिस्तान की कितनी सहायता की किंतु यह बात बस जानते हैं कि अमरीका और चीन पाकिस्तान की मदद के लिये बेचैन हो गये। यूनाइटेड नेशन्स ने पाकिस्तान को पहली खेप में 460 मिलियन अमरीकी डॉलर की सहायता भेजी।यूनाइटेड नेशन्स के अधिकारी यह देखकर हैरान हैं कि जनता को बहुत ही धीमी गति से सहायता प्राप्त हो रही है। जबकि पाकिस्तान में 1 करोड़ लोग बाढ़ का पानी पीने को विवश हैं जिससे वहां महामारी फैलने की आशंका है।
भारत ने भी पड़ौसी होने का धर्म निभाते हुए पाकिस्तान को सहायता देने का प्रस्ताव भेजा किंतु गल्फ देशों के समक्ष झोली फैलाकर गिड़गिड़ाने वाले पाकिस्तान ने भारत से सहायता लेने से मना कर दिया। भारत ने यूएनाओ से प्रार्थना की कि वह पाकिस्तान से कहे कि वह भारत से मदद ले ले। इस पर पाकिस्तान ने भारत से कह दिया कि वह अपनी मदद यूएनओ के माध्यम से भेजे।
अब रिपोर्टें आ रही हैं कि पाकिस्तानी सरकार राहत कार्य में पूरी तरह असफल रही है। इस स्थिति का लाभ उठाकर तालिबानी लड़ाके बाढ़ पीडि़तों की सहायता के लिये आगे आये हैं। रिपोर्टें कहती हैं कि जब तालिबानी लड़ाके जनता को दवा और भोजन देते हैं तो तब उन्हें तालिबानी संगठन में सम्मिलित होने का आदेश भी देते हैं। बहुत से लोग नहीं चाहते कि तालिबान का साया भी उनके बच्चों पर पड़े किंतु भोजन और दवाएं लेना उनकी मजबूरी है इसलिये वे लड़ाकों की बात सुनने से भी इन्कार नहीं कर सकते। अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार हजारों तालिबानी बड़ी तेजी से आतंकवादियों की भर्ती कर रहे हैं और इन क्षेत्रों में कार्यरत विदेशी एजेंसियों को डण्डे के जोर पर खदेड़ा जा रहा है। पाकिस्तानी जनता को सरकारी सहायता के स्थान पर तालिबानी सहायता लेनी पड़ रही है। संभवत: उनके भाग्य में तालिबानियों की सहायता लेना ही लिखा है।

Monday, August 30, 2010

क्या इसलिये पागल हैं चीन और अमरीका, पाकिस्तान के पीछे !

चीन और अमरीका दो ऐसे देश हैं जो हर तरह से एक दूसरे के विपरीत खड़े हैं। चीन दुनिया के धुर पूरब में तो अमरीका धुर पश्चिम में। चीन धर्म विरोधी तो अमरीका धर्म निरपेक्ष, फिर भी चीन का शासक केवल बौद्ध धर्म का अनुयायी ही हो सकता है तो अमरीका में केवल ईसाई धर्म का। चीन साम्यवादी अर्थात् श्रम आधारित सामाजिक रचना के सिद्धांत पर खड़ा है तो तो अमरीका पूंजीवादी अर्थात् भोग आधारित सामाजिक संरचना का रचयिता है। चीन में मानवाधिकार वाले प्रवेश भी नहीं कर सकते जबकि अमरीका मानवाधिकारों के नाम पर पूरी दुनिया पर धौंस जमाता है।

दोनों देशों में यदि कोई समानता है तो यह कि दोनों देश पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। वर्चस्व की इस दौड़ में अमरीका चीन से भयभीत है जबकि चीन के चेहरे पर भय की शिकन तक नहीं।

इतने सारे विरोधाभासों के उपरांत भी दोनों देश पाकिस्तान से विकट प्रेम करते हैं और भारत से शत्रुतापूर्ण अथवा शत्रुता जैसी कार्यवाही करने में नहीं हिचकिचाते। 1962 में चीन, चीनी हिन्दी भाई–भाई का नारा लगाते हुए अपने सेनाएं लेकर भारत पर टूट पड़ा था तो 1971 में अमरीका पाकिस्तान के पक्ष में अपनी नौसेना का सातवां बेड़ा हिन्द महासागर में ले आया था। आज भी स्थितियां न्यूनाधिक मात्रा में वैसी ही हैं। अमरीका और चीन दोनों ही पाकिस्तान में आई बाढ़ में सहायता के लिये बढ़–चढ़कर भागीदारी निभा रहे हैं। मीडिया में आ रही रिपोर्टों को सच मानें तो पाकिस्तान ने चीन को पीओके गिफ्ट कर दिया है। चीन के सात से ग्यारह हजार सैनिक पीओके में खड़े हैं और अमरीका पाकिस्तान को अरबों रुपये की युद्ध सामग्री उपलब्ध करवा रहा है।

पड़ौसी होने के नाते भारत भी पाकिस्तान में आई बाढ़ में सहायता राशि भेजना चाहता था किंतु पहले तो पाकिस्तान ने सहायता लेने से ही मना कर दिया और बाद में अमरीकी हस्तक्षेप के उपरांत उसने भारत से कहा कि भारत को सहायता सामग्री यूएनओ के माध्यम से भेजनी चाहिये।

अमरीका और चीन की पाकिस्तान के साथ विचित्र दोस्ती और पाकिस्तान के द्वारा भारत के साथ किया जा रहा उपेक्षापूर्ण व्यवहार देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई लंगड़ा सियार दो ऐसे झगड़ालू शेराें से दोस्ती करके जंगल के दूसरे जीवों पर आंखें तरेर रहा है जो शेर आपस में एक दूसरे के रक्त के प्यासे हैं। यह दोस्ती तब तक ही सुरक्षित है जब तक कि दोनों शेर अपने खूनी पंजे फैलाकर एक दूसरे पर झपट नहीं पड़ते।

अंतत: पाकिस्तान को एक दिन यह निर्णय लेना ही है कि वह पाकिस्तान में अमरीकी सैनिक अड्डों की स्थापना के लिये अपने आप को समर्पित करता है या फिर चीनी सैनिक अड्डों के लिये ! या फिर इतिहास एकदम नये रूप में प्रकट होने जा रहा है, आधे पाकिस्तान में अर्थात् अफगानिस्तान की सीमा पर अमरीकी सैनिक अड्डे होंगे और आधे पाकिस्तान में अर्थात् भारतीय सीमा पर चीनी सैनिक अड्डे होंगे और पूरा पाकिस्तान इन दोनों शेरों के खूनी पंजों की जोर आजमाइश के लिये खुला मैदान बन जायेगा जैसे पहले कभी अमरीका और रूस के बीच अफगानिस्तान बन गया था!

Wednesday, August 18, 2010

जो प्राथनायें हमारे हृदय को नहीं छूतीं वे ईश्वर को कैसे झुकायेंगी !

हम भगवान के समक्ष गिड़गिड़ाकर, रो–धोकर, हाथ में प्रसाद और मालायें लेकर प्रार्थनाएं करते हैं। अपनी और अपने घर वालों की मंगल कामना के लिये तीर्थ यात्रायें करते हैं, धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं, ब्रत और उपवास रखते हैं। जब–तप भी करते हैं। दान–दक्षिणा और प्रदक्षिणा करते हैं। भगवान से चौबीसों घण्टे यही मांगते रहते हैं कि हमारा और हमारे घर वालों का कोई अनिष्ट न हो किंतु क्या कभी हम यह सोचते हैं कि जो प्रार्थनायें हम ईश्वर से करते हैं, उन प्रार्थनाओं का हमारे अपने हृदय पर कितना प्रभाव पड़ता है!

इम ईश्वर से दया की भीख मांगते हैं किंतु स्वयं दूसरों के प्रति कितने निष्ठुर हैं ? हम ईश्वर से अपने लिये समृद्धि मांगते हैं किंतु दूसरों की समृद्धि हमें फूटी आंख क्यों नहीं सुहाती ? हम दुर्घटनाओं को अपने जीवन से दूर रखने के लिये ईश प्रतिमाओं के समक्ष माथा रगड़ते हैं किंतु हम अपनी ओर से कितना प्रयास करते हैं कि हमारे कारण दूसरा कोई भी व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त न हो ? हम अपने बच्चे को नौकरी में लगवाने के लिये सवा–मणी करते हैं किंतु कभी भी दूसरे के बच्चे का हक मारने में क्यों नहीं हिचकिचाते ? हम अपनी पत्नी के स्वास्थ्य लाभ के लिये प्रति मंगलवार हनुमानजी की और प्रति शनिवार शनिदेव की परिक्रमा लगाते हैं किंतु हम नकली दूध, नकली घी और नकली दवायें बेचकर दूसरों की पत्नियों को बीमार करने में संकोच क्यों नहीं करते ? हम अपने बच्चे को शुद्ध दूध पिलाना चाहते हैं किंतु दूसरे के बच्चे को पानी मिला हुआ दूध बेचने में क्यों भयभीत नहीं होते ?

हमारे अपने हृदय से निकली हुई जिन प्रार्थनाओं का हमारे अपने हृदय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उन स्वार्थमयी शब्दों का ईश्वर पर कैसे असर पड़ेगा ? और जब हमारी प्रार्थनाओं का असर दिखाई नहीं देता तो हम ईश्वर को दोष देते हैं कि वह तो बहरा हो गया है या पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ गया है या यह कि भगवान भी अमीरों का ही है, गरीबों का थोड़े ही है ! वास्तविकता यह है कि यदि हमें अपनी प्राथनाओं में असर चाहिये तो पहले उन प्रार्थनाओं को अपने हृदय पर असर करने दें। ईश्वर बहरा या निष्ठुर नहीं है, वह तो हमें अपने पास ही खड़ा हुआ मिलेगा।

पिछले दिनों जोधपुर के निजी अस्पतालों में जो कुछ घटित हुआ उसने हमें सोचने पर विवश किया है कि जो मरीज और उनके परिजन डॉक्टरों को भगवान कहकर उनकी कृपा दृष्टि पाने को लालायित रहते हैं, उन्हीं मरीजों और उनके परिजनों से अपनी सुरक्षा की गुहार लगाने के लिये डॉक्टरों को सड़कों पर जुलूस क्यों निकालने पड़े ! कारण स्पष्ट है। डॉक्टर लोग, जो सम्मान और विश्वास मरीजों और उनके परिजनों से अपने लिये चाहते थे, वह सम्मान और विश्वास डॉक्टरों ने कभी भी मरीजों और उनके परिजनों को नहीं दिया। और जो चीज हम दूसरों को नहीं दे सकते, वह चीज दूसरों से हम स्वयं कैसे पा सकते हैं। डॉक्टरों ने मरे हुए मरीजों के भी इंजेक्शन लगाने का धंधा खोल लिया तो मरीजों ने भी डॉक्टरों को उसी मुसीबत में पहुंचाने की ठान ली। अब फिर ये जुलूस क्यों? यह घबराहट क्यों ?

मेरा मानना है कि यदि डॉक्टरों को मरीजों और उनके परिजनों का विश्वास और आदर चाहिये तो पहले स्वयं उन्हें विश्वास और आदर प्रदान करें, इन जुलूसों से कुछ होने–जाने वाला नहीं। इस बात को समझें कि समाज स्वार्थी डॉक्टरों के साथ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे निष्ठुर भक्त के साथ भगवान खड़ा हुआ दिखाई नहीं देता।

Tuesday, August 17, 2010

गाय–बछड़े तो भूखे मर जायेंगे किंतु भड़ुए भी लाडू नहीं जीम सकेंगे !

अजमेर में राजस्थान कॉपरेटिव डेयरी फेडरेशन के अधिकारी सुरेन्द्र शर्मा के घर और लॉकरों से लगभग दस करोड़ से अधिक की सम्पत्ति मिल चुकी है। इस बेहिसाब सम्पत्ति को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन है कि एक आदमी को अपने जीवन में कितने पैसे की भूख हो सकती है! पन्द्रह अगस्त को प्रख्यात गायिका आशा भौंसले टेलिविजन के किसी चैनल को दिये गये साक्षात्कार में ठीक ही कह रही थीं कि यह देखकर बहुत दुख होता है कि कुछ लोगों के पास तो खाने को रोटी नहीं है और कुछ लोग रोटी के स्थान पर रुपया खा रहे हैं!

सुरेन्द्र शर्मा के घर और लॉकरों में से निकली सम्पत्ति वस्तुत: गायों के थनों में से दूध के रूप में प्रकट हुई है। यह दूध प्रकृति ने गायों के थनों में उनके बछड़ों के लिये दिया है और बछड़ों का पेट भरने के बाद बचा हुआ दूध मानवों के लिये दिया है किंतु मानव ने सारा का सारा दूध अपने लॉकर में भरकर न केवल बछड़ों को भूखों मरने पर विवश कर रखा है अपितु थन भर–भर कर दूध देने वाली गायों को भी सुबह शाम दूध निकालने के बाद सड़कों पर भटकने और मैला खाने के लिये छोड़ रखा है।

मानव के लालच की गाथा बड़ी है। वह गायों से मिले दूध में बेहिसाब पानी मिलाकर अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने का षड़यंत्र करता है और अधिक से अधिक दूध पाने के लालच में गायों को सुबह शाम आॅक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाकर उन्हें धीमी मौत की तरफ धकेलता है। इतना करने के बाद भी उसका लालच पूरा नहीं होता। वह असली दूध के स्थान पर बाजार में यूरिया और डिटर्जेण्ट पॉउडर से बना हुआ नकली दूध बेचता है ताकि रातों रात करोड़ पति बन सके।

यह कैसा लालच! यह कैसा अंधेर खाता! जो पशु दूध दे रहे हैं, वे आॅक्सीटोसिन के शिकार हो रहे हैं। जिन बछड़ों के लिये दूध बना है, वे भूखों मर रहे हैं। जो पशुपालक दुधारू पशुओं को पाल रहे हैं, वे गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं। जिन बच्चों के लिये माता–पिता महंगे भाव का दूध खरीद रहे हैं, वे डिटर्जेण्ट और यूरिया से बने दूध का शिकार होकर मौत के मुंह में जा रहे हैं जबकि सुरेन्द्र शर्मा जैसे डेयरी फेडरेशन के अधिकारी इस दूध के बल पर करोड़ों रुपये जमा कर रहे हैं।

मेरी समझ में यह नहीं आता कि सुरेन्द्र शर्मा जैसे लोग इतना अधिक पैसा एकत्रित करके आखिर क्या करना चाहते हैं ? क्योंकि उनके बच्चों को भी तो दूसरों के बच्चों की तरह खाने पीने को दूध, घी, मावा, मिठाई, दही, छाछ सबकुछ नकली ही मिलेगा। अचार में फफूंदी लगी मिलेगी, टमाटर सॉस तथा कैचअप में लाल रंग का लैड आॅक्साइड मिलेगा। गेहूं सड़ा हुआ मिलेगा। इसलिये अधिक रुपये चुराकर भी क्या हो जायेगा! नकली खाद्य सामग्री तो वह कम पैसे में भी खरीद सकता है। इसीलिये मैंने लिखा है कि गाय भैंस तो भूखे मर जायेंगे किंतु भडु़ए भी लाडू नहीं जीम सकेंगे।

Sunday, August 8, 2010

कड़वा और कठोर किंतु अच्छा निर्णय है नकल पर नकेल !



मैं उन अध्यापकों को बधाई देता हूँ जिन्होंने जोधपुर जिले में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पांच परीक्षा केन्द्रों पर इस वर्ष हुई दसवीं कक्षा की परीक्षा को निरस्त करने का कठोर और कड़वा निर्णय करवाने के लिये आगे आकर पहल की। अध्यापकों पर सचमुच बड़ी जिम्मेदारी है, समाज में दिखाई दे रही नैतिक गिरावट ; कोढ़, कैंसर या नासूर का रूप धारण करे, उससे पहले ही हमें इस तरह के प्रबंध करने होंगे। जिन अध्यापकों ने परीक्षा पुस्तिकाओं में सामूहिक नकल की दुर्गन्ध आने पर पुस्तिकाएं जांचने से मना कर दिया और बोर्ड कार्यालय को इन केन्द्रों पर जमकर हुई नकल की सूचना दी वे सचमुच प्रशंसा एवं बधाई के पात्र हैं।


आज उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश एवं बिहार आदि राज्यों में परीक्षाओं के दौरान नकल करवाना एक उद्योग के रूप में पनप गया है, जबकि राजस्थान के अध्यापकों ने एक साथ पांच परीक्षा केन्द्रों पर हुई सामूहिक नकल के षड़यंत्र को विफल करके अद्भुत एवं ऐतिहासिक कार्य किया है। अन्य राज्यों के अध्यापकों को तो यह कदम मार्ग दिखाने वाला होगा ही, साथ ही राज्य के भीतर भी उन अध्यापकों, अभिभावकों एवं छात्रों को भी सही राह दिखायेगा जो नकल के भरोसे बच्चों को परीक्षाओं में उत्तीर्ण करवाना चाहते हैं।


इस निर्णय से अवश्य ही उन परिश्रमी एवं प्रतिभाशाली छात्रों का भी एक वर्ष खराब हो गया है जिन्होंने परीक्षाओं के लिये अच्छी तैयारी की थी किंतु गेहूँ के साथ घुन के पिसने की कहावत यहीं आकर चरितार्थ होती है। अवश्य ही उनके साथ अन्याय हुआ है किंतु इस कठोर और कड़वे निर्णय के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। पांच परीक्षा केन्द्रों को नकल करवाने वाले केन्द्रों के रूप में चिह्नित होने से उन स्कूलों में नियुक्त शिक्षकों और नकल में सम्मिलित व्यक्तियों को पूरे राज्य के समक्ष लज्जा का अनुभव होन चाहिये जिनके कारण उन विद्यालयों में सामूहिक नकल हुई और कतिपय निर्दोष छात्रों का भी साल खराब हो गया किंतु केवल यह नहीं समझना चाहिये कि राज्य के अन्य परीक्षा केन्द्रों पर नकल नहीं हो रही! आज छात्रों में नकल करने के कई तरीके प्रचलित हैं। संचार के आधुनिक साधनों ने नकल करने और करवाने के अधिक अवसर उपलब्ध करवा दिये हैं।


सब जानते हैं कि दसवीं-बारहवीं कक्षा के बच्चों की समझ कम विकसित होने के कारण नकल की प्रवृत्ति को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता किंतु सामूहिक नकल की जिम्मेदारी केवल छात्रों पर न होकर उनके शिक्षकों और अभिभावकों पर होती है। कतिपय अध्यापक ऐसे भी होते हैं जो परीक्षा केन्द्र पर अपने चहेते छात्र को अच्छे अंक दिलवाने के लिये, परीक्षा केन्द्र में बैठे प्रतिभाशाली छात्र पर दबाव बनाते हैं कि वह अमुक छात्र को नकल करवाये। जब यह दृश्य दूसरे परीक्षार्थी देखते हैं तो उनका हौंसला बढ़ता है और फिर उस केन्द्र पर जमकर नकल होती है। इस नकल का कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कि कम प्रतिभाशाली छात्र की तो नैया पार लग जाती है किंतु प्रतिभाशाली और परिश्रमी छात्र स्वयं को ठगा हुआ अनुभव करते हैं। अत: नकल पर नकेल कसने का कदम हर तरह से उचित जान पड़ता है।

Thursday, August 5, 2010

वे अपना सामान ठेले पर रख कर क्यों नहीं बेचते !

कल जब सवा सौ करोड़ भारतीयों की आंखें और कान, दिलों की धड़कनें और सांसें भारतीय संसद में महंगाई पर हो रही बहस पर, वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा दिये जा रहे प्रत्युत्तर पर अटकी हुई थीं, तब संसद में एक मोबाइल फोन की घण्टी बजी, पूरी संसद का ध्यान बंटा और वित्तमंत्री झल्लाये– नहीं, नहीं, अभी नहीं, मैं मीटिंग में हूँ और मोबाइल फोन कट गया। पूरा देश हैरान था कि ऐसे व्यस्ततम समय में वित्तमंत्रीजी के पास किसका फोन आया और वे किस बात पर झल्लाये ? जब पत्रकारों ने पूछा तो वित्तमंत्री ने बताया कि कोई मुझे होमलोन देना चाहता था। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पास ऐसे फोन दिन में चार–पांच आते हैं। देश की हैरानी का पार नहीं है।

समाचार पत्रों में यह भी छपा कि कुछ दिन पहले देश के सबसे अमीर आदमी मुकेश अम्बानी के पास भी किसी ने फोन करके उन्हें प्रस्ताव दिया था कि वे आकर्षक ब्याज दरों पर बिना कोई परेशानी उठाये, होम लोन ले लेें।पाठकों को बताने की आवश्यकता नहीं है कि मुकेश अम्बानी अपनी पत्नी को उनके आगामी जन्मदिन पर, देश में बन रहा सबसे बड़ा घर उपहार में देने वाले हैं। ऐसे घर या तो महेन्द्र धोनी जैसे क्रिकेटर बनाते हैं या अमिताभ बच्चन जैसे सिनेमाई अभिनेता या फिर मुकेश अम्बानी जैसे अरब पति व्यवसायी। पिछले जन्म दिन पर उन्होंने अपनी पत्नी को एक बहुत बड़ा हवाई जहाज उपहार में दिया था जिसके भीतर भी एक पूरा घर, दफ्तर, किचन, लाइब्रेरी आदि बने हुए थे।

जिस देश के वित्तमंत्री तथा सबसे धनी व्यक्ति को भी दिन में चार पांच बार ऐसे मोबाइल फोनों से जूझना पड़ता हो तो मोबाइल फोनों द्वारा आम नागरिकों के जीवन में बरपाये जा रहे कहर का अनुमान लगाया जा सकता है। घरों में वृद्ध लोग जब दुपहरी में आराम कर रहे होते हैं तो ऐसे ही कोई फोन चला आता है जैसे कोई बेपरवाह भैंस किसी के हरे–भरे खेत में सुखचैन की हरी फसल चरने आ घुसी हो। आप रेलगाड़ी में चढ़ने के लिये हाथों में सामान और बच्चे उठाये हुए डिब्बे के हैण्डिल को पकड़ते हैं और मोबाइल बज उठता है– आप यह गाना डाउनलोड क्यों नहीं कर लेते मासिक शुल्क केवल तीस रुपये महीना! आप चिकित्सालय में भर्ती हैं, एक हाथ में ग्लूकोज की बोतल चढ़ रही है और आपके पलंग पर रखा हुआ मोबाईल बजता है– आप हमारी कम्पनी से इंश्योरेंस क्यों नहीं करवा लेते, हम आपको ईनाम भी देंगे! आप मंदिर में भगवान को जल अर्पित कर रहे होते हैं और फोन बजने लगता है– आप मनपसंद लड़कियों को दोस्त क्यों नहीं बना लेते ! उम्र उन्नीस साल! मन करता है सिर पीट लें, अपना भी और फोन करने वाले का भी।

कई बार लगता है कि ये लोग अपना सामान, ठेलों पर रखकर गली–गली घूम कर क्यों नहीं बेचते, ठीक वैसे ही जैसे सब्जी और रद्दी वाले घूमा करते हैं! कभी–कभी मुझे तरस आता है उन लड़के–लड़कियों पर जो प्रतिदिन ऐसे फोन करते हैं और लोगों की डांट खा–खाकर प्रताडि़त होते हैं। क्या उन्हें स्वयं पर तथा दूसरों पर तरस नहीं आता कि जब उनके द्वारा किये गये मोबाइल फोन की अवांछित घण्टी बजेगी, उस समय कोई सड़क पर मोटर साइकिल चलाता हुआ दुर्घटना का शिकार हो जायेगा या किसी वृद्ध व्यक्ति की नींद खराब होगी और कोई रोगी परेशान होकर उनपर गालियों की बौछार कर बैठेगा !