आज मेरे मोबाइल पर एक विचित्र एस.एम.एस. आया जिसमें लिखा था– लोग मुझ पर हँसते हैं क्योंकि मैं सबसे अलग हूँ। मैं भी उन पर हँसता हूँ, क्योंकि वे सब एक जैसे हैं। –स्वामी विवेकानंद। इस छोटे से संदेश ने मुझे हिला दिया। स्वामी विवेकानंद भारत की महान विभूति हो गये हैं। उन्होंने कुल 40 साल की आयु पाई। जब 30 वर्ष की आयु में उस युवा सन्यासी ने शिकागो धर्म सम्मेलन में अमरीकियों और यूरोपवासियों को माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स कहकर पुकारा तो सम्पूर्ण संसार की आत्मा आनंद से झूम उठी थी। वह पहला दिन था जब संसार ने भारत की आत्मा के मधुर संगीत की झंकार सुनी थी। उससे पहले हिन्दुस्तान का कोई भी आदमी, दंभी अमरीकियों को भाई–बहिन कहकर नहीं पुकार सका था। तब गोरी चमड़ी वाले, काली चमड़ी वालों को अपना दास मानते थे। लेडीज और जेंटलमेन के स्थान पर भाई–बहिन का सम्बोधन उनके लिये नया था। विवेकानंद, जो भारत के गौरव को संसार में हिमालय की तरह ऊँचा स्थान दिलवा गये, उन्हें यदि यह कहना पड़ा कि मैं भी लोगों पर हँसता हूँ क्योंकि वे सब एक जैसे हैं, तो इसके निश्चय ही गंभीर अर्थ हैं। यह बात जानकर हमें रो पड़ना चाहिये कि विवेकानंद हम पर हँसते थे!
क्या भारत के लोग सचमुच ऐसे हैं जिन पर हँसा जाये। हँसे तो अंग्रेज भी थे 1947 में यह सोचकर कि देखो इन हतभागी हिन्दुस्तानियों को, जो हम जैसे योग्य शासकों को इस देश से भगा रहे हैं। हमने इन्हें कायर और षड़यंत्री राजाओं, नवाबों और बेगमों के चंगुल से आजाद करवाकर नवीन शासन व्यवस्थाएं दीं। हमने इन्हें रेलगाड़ी, सड़क, पुल, टेलिफोन, बिजली, सिनेमा, अस्पताल, बैंक और स्कूल दिये और ये हमें भगा रहे हैं ! अंग्रेजों को पूरा विश्वास था कि एक दिन हिन्दुस्तानी अपने इस अपराध के लिये पछतायेंगे और हमें हाथ जोड़कर वापस बुलायेंगे। एक–एक करके 62 साल बीत चुके। हमें आज तक अंग्रेजों की याद नहीं आई। भारत की रेलगाडि़याँ, सड़कें, पुल, टेलिफोन, बिजली, सिनेमा, अस्पताल, बैंक और स्कूल दिन दूनी, रात चौगुनी गति से बढ़कर आज देश के कौने–कौने में छा चुके हैं। देश आगे बढ़ा है। सम्पन्नता आई है, हमारी आंखों के सामने, मध्यमवर्ग बैलगाडि़यों से उतरकर कारों में आ बैठा है। आलीशान मॉल, फाइव स्टार होटलों और हवाई जहाजों में पैर धरने की जगह नहीं बची है। तो क्या फिर भी हम इसी लायक बने हुए हैं कि हम पर हंसा जाये!
जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने अपने हाथों से हिन्दुस्तान को हिन्दुस्तान बनाया, वे भी एक दिन हम पर यह कहकर हंसे थे– लोग कारों में चलते हैं किंतु उनमें बैलगाडि़यों में चलने की तमीज नहीं है। कबीर भी हम पर यह कहकर हँसते रहे थे– पानी में मीन पियासी, मोहे सुन–सुन आवत हाँसी ! किंतु कबीर को यह कहकर रोना भी पड़ा था– सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागै और रौवे। वस्तुत: देखा जाये तो विवेकानंद, जवाहरलाल नेहरू और कबीरदास एक ही बात पर हँस और रो रहे हैं और वह बात यह है कि हम केवल अपने सुख और स्वार्थों की पूर्ति तक ही सीमित होकर रह गये हैं। हमें कोई अंतर नहीं पड़ता इस बात से कि हमारे किसी कृत्य से समाज के दूसरे लोगों को कितनी चोट पहुंच रही है! ऋषियों की संतान होने का दावा करने वाले भारतीय, भौतिक उपलब्धियों के पीछे पागल होकर, एक दूसरे के पीछे लट्ठ लेकर भाग रहे हैं। इसी कारण हम विवेकानंद को एक जैसे दिखाई देते थे और इसी कारण कबीर हमें देखकर रातों को जागते और रोते थे।

CHITRKOOT KA CHATAK
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... बेहतरीन अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeletebahut achha...ham bhartiya log sach men bhatag gaye hai...swarth, jatiwaad, sampradayikta ,bhrashtachaar men atke aur uljhe hue hain..
ReplyDeleteहम केवल अपने सुख और स्वार्थों की पूर्ति तक ही सीमित होकर रह गये हैं। हमें कोई अंतर नहीं पड़ता इस बात से कि हमारे किसी कृत्य से समाज के दूसरे लोगों को कितनी चोट पहुंच रही है...
ReplyDeleteयही है सत्य जिससे हम चाह कर भी आँख नहीं चुरा सकते ...!!