Monday, June 28, 2010
दो पाटों के बीच में कौन पिसना चाहता है। !
अपने पिछले आलेख जिंदगी के बस स्टॉप पर भी समय नहीं रुकता ! में मैंने लिखा था कि टाइम इज मनी के नारे ने भारतीय नारियों को उनकी घरेलू भूमिकायें अधूरी छोड़कर नौकरियों की ओर दौड़ा दिया। इस पर निर्मला कपिलाजी ने मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी की है कि वे मेरी इस बात से सहमत नहीं। भारतीय नारियों को उसके शोषण और उन पर हो रहे अत्याचारों और समान अधिकार ने उन्हें इस राह पर चलाया। अगर आदमी जरा सा भी अपने अहंकार से ऊपर उठकर उसे सम्मान देता, यह कभी नहीं होता, कौन नारी चाहती है कि वह दो पाटों के बीच में पिसे। इस अंधी दौड़ के और भी कई कारण हैं न कि टाइम इज मनी।
मैं निर्मलाजी की लगभग सारी बातों से सहमत हूँ। यह सही है कि भारतीय समाज में हर औरत से राजा हरिश्चंद्र की रानी तारामती की तरह व्यवहार करते रहने की अपेक्षा की गई जो हर हाल में पति की आज्ञाकारिणी बनी रहे और तरह-तरह के कष्ट पाकर पति तथा उसके परिवार की सेवा करे किंतु अधिकांश पुरुषों ने स्वयं को भारतीय नारी के सम्मुख राजा हरिश्चंद्र की तरह प्रस्तुत नहीं किया। मैंने उन पुरुषों को देखा है जिन्होंने अपनी कमाई को शराब, जुए अथवा परस्त्रीगमन जैसी बुराइयों में उड़ा दिया। उन्होंने शराब के नशे में अपनी पत्नी को पीटा और घर से निकाल दिया।
जिन घरों में पुरुष ऐसे थे, उन घरों में निश्चित रूप से परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी औरतों पर आ पड़ी किंतु सवाल यह है कि भारतीय समाज में कितने पुरुष ऐसे हैं जो शराब पीकर अपनी पत्नी को पीटते हैं? कितने पुरुष ऐसे हैं जो अहंकार के कारण पत्नी को सम्मान नहीं देते? कितने पुरुष ऐसे हैं जिन्होंने अपने घरों में स्त्रियों पर अत्यार किये और उन्हें घर में अपने बराबर का सदस्य नहीं समझा? मैं समझता हूँ कि यदि प्रतिशत में बात की जाये तो ऐसे दुराचारी, अत्याचारी, अहंकारी पुरुषों की संख्या एक प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। आप दस प्रतिशत मान लीजिये ! दस प्रतिशत पुरुषों की गलती के लिये सौ प्रतिशत पुरुषों पर दोषारोपण करना वस्तुत: देश में फैलाये गये एक भ्रम का परिणाम है। मैं समझता हूँ कि जितने प्रतिशत पुरुष अपने घरों की महिलाओं पर अत्याचार करते हैं तो उतनी ही प्रतिशत औरतें भी हैं जो अपने पतियों पर अत्याचार करती हैं। फिर भी पूरी स्त्री जाति को तो कोई कटघरे में खड़ा नहीं करता ! करना भी नहीं चाहिये। मेरा यह अनुभव है कि जब भी औरतों के सम्बन्ध में कुछ कहा जाता है, एक विशेष मानसिकता से ग्रस्त लोग उसका विरोध करने के लिये आ खड़े होते हैं और मूल विषय से ध्यान भटका देते हैं। समाज न तो स्त्री के बिना चल सकता है और न पुरुष के बिना। हर पुरुष ने माँ के पेट से जन्म लिया है और हर स्त्री किसी पिता की पुत्री है। मेरा पिछला आलेख इस विषय पर नहीं था कि औरतें कमाने के लिये घर से बाहर क्यों निकलीं? मैं तो समाज का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता था कि केवल पैसे के लिये जीवन भर हाय-तौबा मचाने से व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के जीवन में समस्याएं उत्पन्न होती है। सुख-चैन तिरोहित हो जाते हैं। पैसा सबको चाहिये किंतु कितना चाहिये और किस कीमत पर चाहिये, इसके बारे में कभी तो बैठकर विचार करें। फिर भी निर्मला कपिलाजी का आभार है क्योंकि उन्होंने एक बड़े सत्य की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है कि दो पाटों के बीच में कौन पिसना चाहता है।
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