Monday, February 15, 2010
मौत का कुआँ खुदने में देर नहीं लगती !
मनुष्य के भाग्य का आकलन उसे मिले सुख से होता है। कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ है भौतिक सुख जिसमें शारीरिक स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, गृह, प्रसिद्धि एवं लोक–प्रतिष्ठा जैसे तत्व सम्मिलित होते हैं जबकि कुछ लोगों के लिये सुख का अर्थ मानसिक सुख अर्थात् मन की उस अवस्था से होता है जिसमें आदमी संतुष्टि, आनंद और परिपूर्णता का अनुभव करता है। आज भौतिक सुखों के लिये हम मानसिक सुखों का गला घोटने की होड़ में जुट गये हैं और बच्चों को कठिन पढ़ाई की उस भीषण ज्वाला में झौंक रहे हैं जिसमें झुलसकर बहुत से बच्चे निराशा, कुण्ठा, हीन भावना, अवसाद और अकेलेपन और अपराधबोध से ग्रस्त होकर आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। बहुत से माता–पिता अपने बच्चों को सीए, बीबीए तथा एमबीए जैसी कठिन पढ़ाई की ओर जबर्दस्ती धकेल रहे हैं। उनके सामने आईआईटी, पीएमटी और आईएएस जैसी कठिन परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने का लक्ष्य रख रहे हैं। क्या हर बच्चा इन परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर सकता है? ऐसे उदाहरण भी सामने आये हैं जब बच्चे ने किसी तरह तीन–चार साल खराब करके आईआईटी या मेडिकल में प्रवेश तो ले लिया किंतु वहां उनसे मोटी–मोटी किताबें पढ़ी नहीं गईं और उन्होंने घबराकर आत्महत्या कर ली। हाल ही में जोधपुर में बीबीए में पढ़ने वाली एक ऐसी छात्रा ने आत्महत्या की जो बारहवीं कक्षा में तीन बार अनुत्तीर्ण हुई थी। कुछ माह पूर्व जोधपुर के ही एक छात्र ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल मारकर आत्महत्या की थी जो आईआईटी मुम्बई का छात्र था। उसने एक नोट लिखकर छोड़ा था– मरने के बाद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।बहुत से माता–पिता यह जानकर भी कि उनका बच्चा कठिन पढ़ाई नहीं कर सकता उसे जबर्दस्ती आईआईटी और पीएमटी की तैयारी करने के लिये कोटा भेज देते हैं। कोटा में आये साल बच्चे आत्महत्या करते हैं। वहां नशीली दवाओं का कारोबार फैल रहा है। हाल ही में कोटा में एक ऐसा गिरोह पकड़ा गया था जो चरस, गांजा, अफीम, हशीश और हेरोइन से भी कई गुना अधिक नशीले पदार्थ कोचिंग सेंटर के बच्चों को बेचता था। सोचिये! क्यों वे बच्चे इन नशीली दवाओं के चक्कर में फंसते हैं ? केवल मानिसक तनाव से बचने के लिये। मैं एक ऐसे अभिभावक को जानता हूँ जिसने अपने बच्चे सात साल तक कोटा में रखे ताकि वे किसी तरह पीएमटी की परीक्षा उत्तीर्ण कर लें। आज वे बच्चे पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और माता–पिता की जेबें खाली हो चुकी हैं। बच्चों की बरबादी के लिये पति–पत्नी एक दूसरे को दोष देकर आपस में लड़ रहे हैं। बहुत से माता–पिता अपने बच्चों को आईएएस परीक्षा की तैयारी के लिये दिल्ली में रखकर कोचिंग करवाते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा सम्पन्न बच्चे तो उस परीक्षा को पास कर लेते हैं किंतु कुछ बच्चे निराश होकर आत्महत्या तक करते हैं। संसार के सारे बच्चे मोटी–मोटी पुस्तकें पढ़ने के लिये ही पैदा नहीं हुए हैं। हर बच्चे में अलग प्रतिभा होती है। उसकी प्रतिभा को नैसर्गिक रूप से विकसित होने देना चाहिये। माता–पिता जो नहीं कर सके, वही काम उन्हें अपने बच्चों से करवाने की जिद नहीं करनी चाहिये। इसे आर–या पार खेलने का जुआ भी नहीं बनाना चाहिये अन्यथा मौत का कुंआ खुदने में देर नहीं लगती। यूं तो हर साल सब्जी बेचने वाले, सरकारी चपरासी और कुलियों के बच्चे भी बिना किसी कोचिंग के आईएएस की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा इसी को कहते हैं। उसी को आगे आने देना चाहिये। अपना बच्चा कोई छोटी नौकरी कर लेगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा।
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