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Wednesday, August 18, 2010

जो प्राथनायें हमारे हृदय को नहीं छूतीं वे ईश्वर को कैसे झुकायेंगी !

हम भगवान के समक्ष गिड़गिड़ाकर, रो–धोकर, हाथ में प्रसाद और मालायें लेकर प्रार्थनाएं करते हैं। अपनी और अपने घर वालों की मंगल कामना के लिये तीर्थ यात्रायें करते हैं, धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं, ब्रत और उपवास रखते हैं। जब–तप भी करते हैं। दान–दक्षिणा और प्रदक्षिणा करते हैं। भगवान से चौबीसों घण्टे यही मांगते रहते हैं कि हमारा और हमारे घर वालों का कोई अनिष्ट न हो किंतु क्या कभी हम यह सोचते हैं कि जो प्रार्थनायें हम ईश्वर से करते हैं, उन प्रार्थनाओं का हमारे अपने हृदय पर कितना प्रभाव पड़ता है!

इम ईश्वर से दया की भीख मांगते हैं किंतु स्वयं दूसरों के प्रति कितने निष्ठुर हैं ? हम ईश्वर से अपने लिये समृद्धि मांगते हैं किंतु दूसरों की समृद्धि हमें फूटी आंख क्यों नहीं सुहाती ? हम दुर्घटनाओं को अपने जीवन से दूर रखने के लिये ईश प्रतिमाओं के समक्ष माथा रगड़ते हैं किंतु हम अपनी ओर से कितना प्रयास करते हैं कि हमारे कारण दूसरा कोई भी व्यक्ति दुर्घटनाग्रस्त न हो ? हम अपने बच्चे को नौकरी में लगवाने के लिये सवा–मणी करते हैं किंतु कभी भी दूसरे के बच्चे का हक मारने में क्यों नहीं हिचकिचाते ? हम अपनी पत्नी के स्वास्थ्य लाभ के लिये प्रति मंगलवार हनुमानजी की और प्रति शनिवार शनिदेव की परिक्रमा लगाते हैं किंतु हम नकली दूध, नकली घी और नकली दवायें बेचकर दूसरों की पत्नियों को बीमार करने में संकोच क्यों नहीं करते ? हम अपने बच्चे को शुद्ध दूध पिलाना चाहते हैं किंतु दूसरे के बच्चे को पानी मिला हुआ दूध बेचने में क्यों भयभीत नहीं होते ?

हमारे अपने हृदय से निकली हुई जिन प्रार्थनाओं का हमारे अपने हृदय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उन स्वार्थमयी शब्दों का ईश्वर पर कैसे असर पड़ेगा ? और जब हमारी प्रार्थनाओं का असर दिखाई नहीं देता तो हम ईश्वर को दोष देते हैं कि वह तो बहरा हो गया है या पत्थर की मूर्ति बनकर बैठ गया है या यह कि भगवान भी अमीरों का ही है, गरीबों का थोड़े ही है ! वास्तविकता यह है कि यदि हमें अपनी प्राथनाओं में असर चाहिये तो पहले उन प्रार्थनाओं को अपने हृदय पर असर करने दें। ईश्वर बहरा या निष्ठुर नहीं है, वह तो हमें अपने पास ही खड़ा हुआ मिलेगा।

पिछले दिनों जोधपुर के निजी अस्पतालों में जो कुछ घटित हुआ उसने हमें सोचने पर विवश किया है कि जो मरीज और उनके परिजन डॉक्टरों को भगवान कहकर उनकी कृपा दृष्टि पाने को लालायित रहते हैं, उन्हीं मरीजों और उनके परिजनों से अपनी सुरक्षा की गुहार लगाने के लिये डॉक्टरों को सड़कों पर जुलूस क्यों निकालने पड़े ! कारण स्पष्ट है। डॉक्टर लोग, जो सम्मान और विश्वास मरीजों और उनके परिजनों से अपने लिये चाहते थे, वह सम्मान और विश्वास डॉक्टरों ने कभी भी मरीजों और उनके परिजनों को नहीं दिया। और जो चीज हम दूसरों को नहीं दे सकते, वह चीज दूसरों से हम स्वयं कैसे पा सकते हैं। डॉक्टरों ने मरे हुए मरीजों के भी इंजेक्शन लगाने का धंधा खोल लिया तो मरीजों ने भी डॉक्टरों को उसी मुसीबत में पहुंचाने की ठान ली। अब फिर ये जुलूस क्यों? यह घबराहट क्यों ?

मेरा मानना है कि यदि डॉक्टरों को मरीजों और उनके परिजनों का विश्वास और आदर चाहिये तो पहले स्वयं उन्हें विश्वास और आदर प्रदान करें, इन जुलूसों से कुछ होने–जाने वाला नहीं। इस बात को समझें कि समाज स्वार्थी डॉक्टरों के साथ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे निष्ठुर भक्त के साथ भगवान खड़ा हुआ दिखाई नहीं देता।

1 comment:

  1. जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं ...खुद वैसा ही व्यवहार दूसरों से करें तो दुनिया स्वर्ग नहीं बन जाए ...!

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