जब से देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण की हवा बहनी आरंभ हुई, देश में पूंजी का तेजी से प्रसार हुआ। इस पूंजी ने देश के आम आदमी को बदल कर रख दिया। हर आदमी पूंजी के पीछे बेतहाशा दौड़ पड़ा। धनार्जन के सम्बन्ध में पवित्र-अपवित्र का भाव लुप्त हो गया। बहुत से लोग जिन्हें साइकिलें भी नसीब नहीं थीं, कारों और हवाई जहाजों में चलने लगे। लोगों के बैंक बैलेंस फूलकर मोटे हो गये।
जमीनों के भाव आसमान छूने लगे, कारों के आकार बड़े हो गये। मोटर साइकिलों की गति तेज हो गई। बच्चे आई. आई. एम., आई. आई. टी. और एम्स में पढ़ने लगे। पांच सितारा होटलों में रौनकें बढ़ गईं। डांस बार, पब और मॉल धरती फोड़ कर कुकुरमुत्तों की तरह निकल आये। महंगे अस्पतालों की बाढ़ आ गई। कोचिंग सेंटर फल-फूल गये। हर कान पर मोबाइल लग गया। कम्प्यूटर, लैपटॉप, ब्रॉडबैण्ड और साइबर कैफे आम आदमी की पहुंच में आ गये।
उदारीकरण के बाद भारतीय समाज में पूंजी के प्रति आकर्षण और लालच इतना अधिक बढ़ा कि स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा पूंजी 25 लाख करोड़ रुपये तक जा पहुँची। देश में 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये की नकली मुद्रा फैल गई। जो दालें 20 रुपये किलो मिलती थीं, 100 रुपये का भाव देख आईं। बंदरगाहों पर चीनी सड़ती रही और देश में चीनी के लिये त्राहि-त्राहि मच गई। एफसीआई के गोदामों में गेहँ पर चमगादड़ें मल त्यागती रहीं और गेहूँ का भाव 17-18 रुपये किलो हो गया। दवाओं में लोहे की कीलें निकलने लगीं। रेलवे स्टेशनों पर दीवारें पोतने के रंग से चाय बनने लगी। घी में पशुओं ही नही आदमी की हव्यिों की चर्बी मिलाई जाने लगी।
पूंजी को भोगने के लिये एक विशेष प्रकार की मानसिकता चाहिये। इस मानसिकता को पुष्ट करने के लिये देश के नागरिकों को विशेष प्रकार के संवैधानिक अधिकार चाहियें। यही कारण है कि उदारीकरण के दौर में देश में नये-नये कानून बन रहे हैं। लोकतंत्र की नई-नई व्याख्याएं हो रही हैं। स्त्री-पुरुषों के सम्बन्धों को नये सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। देश में समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता दे दी गई है। स्त्री-पुरुषों को विवाह किये बिना ही एक साथ रहने की छूट भी मिली है। अब घर की महिलाओं से कोई यह नहीं पूछ सकता कि तेरे साथ यह जो अजनबी पुरुष आया है, यह कौन है? क्यों आया है? और कब तक घर में रुकेगा? लड़कियां ही नहीं लड़कियों की लड़कियां भी अपने नाना और मामा की सम्पत्तिा में हिस्सेदार बना दी गईं हैं। अर्थात् कल तक जो अनैतिक था, मार्यादा विहीन था, अकल्पनीय था, आज वह अचानक ही संवैधानिक मान्यता प्राप्त पवित्र कर्म हो गया।
टेलिविजन ने स्त्री-पुरुष के अंतरंग प्रसंगों को मनोरंजन का विषय बना दिया। ये दृश्य बच्चों के देखने के लिये भी सुलभ हो गये। रियेलिटी शो, डांस शो तथा लाफ्टर शो फूहड़ता और अश्लीलता के प्रसारक बने। इस कारण भारतीय बच्चे भी तेजी से बदल गये। कई स्थानों पर स्कूली बच्चों ने अपनी अध्यापिकाओं के साथ बलात्कार किये तो अध्यापकों ने भी अपनी शिष्याओं के साथ काला मुंह करने में कसर नहीं छोड़ी। चलती कारों और ट्रेनों में भी बलात्कार होने लगे।
इन सब बातों का हमारे देश की सामाजिक संरचना पर व्यापक असर हुआ है। यदि यह कहा जाये कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद भारतीय समाज इतनी तेजी से बदला, जितनी तेजी से वह अपने विगत एक हजार वर्षों के इतिहास में भी नहीं बदला तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
Saturday, April 17, 2010
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CHITRKOOT KA CHATAK
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बहुत बदलाव आया है तो दिखता है.
ReplyDeletebahut sahii vishleshan kiyaa hai aapne aabhar
ReplyDeleteअब वाकई में भारत इंडिया बन गया है
ReplyDeleteबात तो सही कही है
ReplyDelete.
पर इतना तो समझिये कि विकास कि कीमत चुकानी होगी किसी न किसी रूप मे.
गीता भी यही कहती है कि कर्म कर फल पर अधिकार नहीं है
तो बंधू विकास के पथ पे बढ़ता जाने दे देश को
समय को कोई नहीं रोक पाया है