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Tuesday, January 12, 2010

अधिक पूंजी मनुष्य की सामाजिकता को नष्ट कर देती है!


लंदन के लेगटम संस्थान और आब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने भारत को उसके पड़ौसी देशों अर्थात् चीन, पाकिस्तान, बर्मा, बांगलादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान और नेपाल की तुलना में अच्छी प्रशासनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति वाला देश ठहराया है। इससे हमें फूल कर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं है। कई बार अकर्मण्य पुत्र अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित सम्पदा के बल पर धनी कहलवाने का गौरव प्राप्त करते हैं, ठीक वैसी ही स्थिति हमारी भी हो सकती है। भारतीय समाज और परिवार के भीतर सब–कुछ ठीक नहीं चल रहा है। भारतीय समाज और परिवार अब तक तो पूर्वजों द्वारा निर्धारित नैतिक मूल्यों के दायरे में जीवन जीते रहे हैं और सुख भोगते रहे हैं किंतु जब नैतिक मूल्यों का स्थान पूंजी ले लेगी, तब भारतीय समाज और परिवारों के भीतर कष्ट और असंतोष बढ़ते चले जायेंगे।

कुछ लोग हैरान होकर पूछते हैं कि कम पूंजी में सुखी कैसे रहा जा सकता है? उनके विचार में तो मनुष्य के पास जितनी अधिक पूंजी बढ़ेगी, उतना ही वह सुखी रहेगा। लोगों के चिंतन में आई यह विकृति हमारी शिक्षा पद्धति का दोष है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था और परिवार नामक संस्था के विरुद्ध, राष्ट्र के भीतर और बाहर जो षड़यंत्र रचे गये हैं, उनका ही परिणाम है कि अधिकांश भारतीय परिवार पूंजी के पीछे पागल होकर बेतहाशा दौड़ पड़े हैं।

संसार में मनुष्य ही एकमात्र प्राणी नहीं है, करोड़ों तरह के जीव जंतु हैं। उनमें से कोई भी पूंजी का निर्माण नहीं करता, संग्रह भी नहीं करता। फिर भी वे ना–ना प्रकार के श्रम करते हैं और भोजन के रूप में आजीविका प्राप्त करते हैं। बिना पूंजी के वे प्रसन्न कैसे रहते हैं, क्या केवल भोजन प्राप्त कर लेना ही उनके लिये एकमात्र प्रसन्नता है? हमारा सनातन अनुभव और नूतन विज्ञान दोनों ही बताते हैं कि पशु–पक्षियों, कीट पतंगों, सरीसृपों और मछलियों में भी सामाजिक जीवन होता है जिसके आधार पर वे एक दूसरे का सहारा बनते और सुखी रहतेे हैं। यह सही है कि पूंजी का निर्माण किये बिना मनुष्य का सामाजिक जीवन लगभग असंभव है किंतु यह भी सही है कि अधिक पूंजी का विस्तार मनुष्य की सामजिकता को नष्ट कर देता है।

श्रीमती इंदिरा गांधी लगभग 17 साल तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। उन्होंने देश के संविधान की भूमिका में भारत के नाम के साथ ‘‘समाजवादी’’ शब्द जोड़ा (न कि ‘‘पूंजीवादी’’)। इसीसे अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्वतंत्र भारत के सामाजिक ढांचे को सुरक्षित रखने के लिये चिंतित थीं और उन्हें ज्ञात था कि दुनिया हमारे समाजिक ढांचे को चोट पहुंचाने के भरपूर प्रयास करेगी।

दु:ख की बात यह है कि विगत दशकों में भारत का सामाजिक ढांचा कमजोर हुआ है तथा परिवारों में टूटन बढ़ी है। आम आदमी के नैतिक बल में कमी आने से समाजिक स्तर पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, विवाहेत्तर सम्बन्ध, सम्पत्ति हरण, कमीशनखोरी, सड़क दुर्घटनाएं, बलवे, साम्प्रदायिक उन्माद, फतवे, आतंकवादी हमले, नकली नोटों का प्रचलन, राहजनी, सेंधमारी, चेन स्नैचिंग, नक्सलवाद आदि बुराइयों का प्रसार हुआ है। इसी तरह परिवारों के भीतर घर के सदस्यों की हत्याएँ, उत्पीड़न, तलाक, बच्चों के पलायन, मदिरापान, विषपान, आत्महत्या जैसी बुराइयों का निरंतर प्रसार हुआ है। हम भीतर ही भीतर खोखले हो रहे हैं।

यही कारण है कि लंदन के लेगटम संस्थान और आॅब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन की रिपोर्ट में भारत को 104 देशों की सूची में से 47वां स्थान मिला है। यह काफी नीचा है और भय है कि आने वाले दशकों में हम 47 से और नीचे न खिसक जायें। यह सोचकर प्रसन्न होने का कोई लाभ नहीं है कि चीन को हमसे काफी नीचे, 75वां स्थान मिला है।

2 comments:

  1. लेकि‍न एक न्‍यूनतम सीमा से नीचे पूंजी का होना भी असामाजि‍कता की ओर ले जाता है, नहीं ??

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  2. आप ने बिल्कुल सही कहा। निर्धनता से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है– नहीं दरिद्र सम दुख जग माहीं। – डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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