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Thursday, January 14, 2010

पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था ही हमारी पूंजी है!


लंदन की लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट में भारत की परिवारिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया है। वस्तुत: भारत की परिवार व्यवस्था संसार की सबसे अच्छी परिवार व्यवस्था रही है। भारतीय पति–पत्नी का दायित्व बोध से भरा जीवन पूरे परिवार के लिये समर्पित रहता है। इसी समर्पण से भारतीय परिवारों को समृद्ध और सुखी रहने के लिये आवश्यक ऊर्जा मिलती है। जबकि आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में पति–पत्नी एक बैरक में रहने वाले दो सिपाहियों की तरह रहते हैं, जो दिन में तो अपने–अपने काम पर चले जाते हैं, रात को दाम्पत्य जीवन जीते हैं और उनके छोटे बच्चे क्रैश में तथा बड़े बच्चे डे बोर्डिंग में पलते हैं। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मेंढक अपने अण्डे पानी में छोड़कर आगे बढ़ जाता है, वे जानें और उनका भाग्य जाने।

पश्चिमी देशों की औरतें अपने लिये अलग बैंक बैलेंस रखती हैं। उनके आभूषणों पर केवल उन्हीं का अधिकार होता है। आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने के कारण उनमें अहमन्यता का भाव होता है और वे अपने पहले, दूसरे या तीसरे पति को तलाक देकर अगला पुरुष ढूंढने में अधिक सोच विचार नहीं करतीं। यही कारण है कि आज बराक हुसैन ओबामा का कोई भाई यदि केन्या में मिलता है तो कोई भाई चीन में। जब से ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति बने हैं, तब से दुनिया के कई कौनों में बैठे उनके भाई बहिनों की लिखी कई किताबें बाजार में आ चुकी हैं। यही राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन के मामले में भी यही हुआ था।

जापानी पत्नियाँ संसार भर में अपनी वफादारी के लिये प्रसिद्ध हैं। फिर भी जापान में एक कहावत कही जाती है कि पत्नी और ततभी (चटाई) नई ही अच्छी लगती हैं। यही कारण है कि जापानी परिवारों में बूढ़ी औरतों को वह सम्मान नहीं मिलता जो भारतीय परिवारों में मिलता है। भारत में स्त्री की आयु जैसे जैसे बढ़ती जाती है, परिवार में उसका सम्मान भी बढ़ता जाता है, उसके अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। भारत में स्त्रियां धन–सम्पत्ति और अधिकारों के लिये किसी से स्पर्धा नहीं करती हैं, जो पूरे परिवार का है, वही उसका है।

पारम्परिक रूप से भारतीय औरत अपने लिये अलग बैंक खाते नहीं रखती है, उसके आभूषण उसके पास न रहकर पूरे परिवार के पास रहते हैं। वह जो खाना बनाती है, उसे परिवार के सारे सदस्य चाव से खाते हैं, बीमार को छोड़कर किसी के लिये अलग से कुछ नहीं बनता। जब वह बीमार हो जाती है तो घर की बहुएं उसके मल मूत्र साफ करने से लेकर उसकी पूरी तीमारदारी करती हैं। बेटे भी माता–पिता की उसी भाव से सेवा करते हैं जैसे मंदिरों में भगवान की पूजा की जाती है।

पाठक कह सकते हैं कि मैं किस युग की बात कर रहा हूँ। मैं पाठकों से कहना चाहता हूँ कि भारत के 116 करोड़ लोगों में से केवल 43 करोड़ शहरी नागरिकों को देखकर अपनी राय नहीं बनायें, गांवों में आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है। शहरों में भी 80 प्रतिशत से अधिक घरों में आज भी परम्परागत भारतीय परिवार रहते हैं जहाँ औरतें आज भी संध्या के समय सिर पर पल्ला रखकर तुलसी के नीचे घी का दिया जलाती हैं और घर की बड़ी–बूढि़यों से अपने लम्बे सुहाग का अशीर्वाद मांगती हैं। ऐसी स्थिति में यदि लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट ने सामाजिक मूल्यों के मामलें में भारत को संसार का पहले नम्बर का देश बताया है तो इसमें कौनसे आश्चर्य की बात है!

3 comments:

  1. बहुत अच्‍छे विषय का बहुत ही उम्‍दा प्रस्‍तुतिकरण। भारतीय परिवार जीवन का सम्‍पूर्ण सत्‍य है। यहाँ भोग नहीं त्‍याग की भावना से चला जाता है। आपको बधाई।

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  2. लेगटम प्रोस्पेरिटी रिपोर्ट के बाद शायद हम अपने देश के सामाजिक व्‍यवस्‍था की कद्र करें .. अभी तक तो सबको लग रहा है कि इसमें खामियां ही खामियां हैं !!

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  3. sirf paarivaarik vyavsthaa hi nahi , ham bharatvaasi tamaam vyavsthaao ke dhani he.../ safal jeevan ynhi jiyaa jaa saktaa he duniya me kanhi bhi yah sambhav nahi.

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