लंदन के लेगटम संस्थान और आब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने कौनसे भारत की प्रशंसा की है? क्या उस भारत की जिसमें पाश्चात्य संस्कृति में आकण्ठ डूबा हुआ धनी समाज रहता है और परिवारों ने मुक्त यौनाचरण व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है? या उस भारत की जहाँ आज भी कुलवधुओं की आँखों में लज्जा और शर्म का बोध होता है? मैं समझता हूँ लेगटम संस्थान ने दूसरी तरह के भारत की प्रशंसा की है जिसमें कुलवधू लज्जा का गहना पहनकर अपने ससुराल आती है और परिवार को अपनी उपस्थिति की सौंधी गंध से भरकर निहाल कर देती है। देहयष्टि, रूप और यौवन का व्यवसाय करने वाले लोग इस सौंधी गंध को कुचल कर नष्ट करके समाज में नंगापन घोल देना चाहते हैं।
आज से कुछ वर्ष पूर्व जब बेबी खुशबू युवा हो गई तो उसने टी।वी। चैनलों पर बयान दिया कि प्रतिस्पर्धा और आधुनिकता के इस युग में भारतीय समाज नारी से कौमार्य की अपेक्षा न करे। यह समझने की आवश्यकता है कि खुशबू ने ऐसा दर्शनशास्त्र क्यों बघारा? नि:संदेह उसने फिल्मों में काम पाने के लिये फिल्म निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के उद्देश्य से ऐसी बचकाना हरकत की।
हाल ही में परफैक्ट इण्डियन ब्राइड कही जाने वाली अमृता राव ने भी जब देखा कि फिल्म निर्माता उसे ठण्डी नायिका के रूप में देख रहे हैं और उसे कम फिल्में मिल रही हैं तो उसने बयान दे मारा कि शादी के पहले सैक्स में बुराई नहीं। ये सारे प्रयास एक खास व्यावसायिक मानसिकता की देन हैं जो हमें हमारे बाप दादों की उज्ज्वल संस्कृति से विमुख करते हैं। लाफ्टर शो के माध्यम से पूरे भारत में बेशर्मी और वाचालता का प्रसार किया गया। बिग बॉस जैसे सीरियल उसकी अगली कड़ी हैं। बिग बॉस में दिखाये गये घर और उसके सदस्य किस भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक परिवेश को प्रदर्शित करते हैं! राष्ट्र–व्यापी बेशर्मी के साथ भारत के एक सौ सोलह करोड़ लोगों को बेहद फूहड़, अश्लील और घटियापन परोसा जा रहा है। राखी सावंत और संभावना सेठ जैसी कलाकारों ने इस फूहड़पन के माध्यम से भले ही सैंकड़ों करोड़ रुपये कमा लिये होंगे किंतु भारतीय समाज और परिवारों के लिये उनकी वाचालता ने विकृतियाँ परोसने का ही काम किया है।
किसी भी सभ्य समाज को मनोरंजन प्रधान कार्यक्रमों के विरुद्ध नहीं होना चाहिये। मैं भी नहीं हूँ। कालिदास ने कहा है कि आदमी उत्सव–प्रिय है, उत्सवों का आयोजन होते रहना चाहिये किंतु टी वी पर मनोरंजन के नाम पर जो फूहड़ता, भद्दापन और अश्लीलता परोसी जा रही है, उससे देश की उत्सव प्रधान संस्कृति, सामाजिक परिवेश तथा पारिवारिक संरचना को नुक्सान पहुँच रहा है। आम आदमी का भोलापन और उसकी सरलता नष्ट हो रही है। उसमें कांईयाँपन, वाचालता और चालाकी की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
जब कुछ लोग इस फूहड़ता और अश्लीलता का विरोध करते हैं तो उन्हें हिन्दुस्तानी तालिबान कहकर उनकी आवाज दबाने का प्रयास किया जाता है। रूपाजीवाएँ भारत में सदैव रही हैं किंतु वे कभी इतनी मुखर नहीं रहीं जितनी कि आज हैं। नि:संदेह लेगटम संस्थान और आब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन ने इन रूपाजीवाओं के रूप सौंदर्य पर रीझ कर भारतीय समाज और परिवारों की प्रशंसा नहीं की है।
आभार मनोजकुमारजी!
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